Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti
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________________ नहोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचिता [ अष्टमः सर्गः नृगतिर्नगरी नेयं, ननु शङ्खपुरं ह्यदः / वनं चित्तरमं चेदं, हट्टमार्गो न विस्तृतः // 658 // न कर्मपरिणामोऽत्र, राजा श्रीगर्भ एव तु / अबद्धं भगवान् बुद्धे ! किमित्येवं प्रभाषते // 659 // भगवानाह जानीषे, परमार्थं न मे गिराम् / भद्रेऽगृहीतसङ्केता, ततस्त्वमसि निश्चितम् // 660 // सा दध्यौ हा ममाप्यन्या, कृता भगवताऽभिधा / स्थितेति विस्मिता भावं, महाभद्रा त्वलक्षयत् // 661 // नूनमेष महापापो, निर्दिष्टो नरकं गमी / जीवो भगवता तस्याः, सञ्जाता महती कृपा // 662 // पप्रच्छ भगवन्तं सा, मुच्येताऽसौ कथञ्चन / स प्राह दर्शनात् तेऽस्य, मोक्षः स्याच्छ्यणाच्च नः // 663 // महाभद्राऽऽह भगवंस्तद् , गच्छाम्यस्य संमुखम् / भगवानाह गच्छाशु, सफलोऽयं तवोद्यमः // 664 // ततः कृपापरा याता, महाभद्रा मदन्तिकम् / उक्तश्चाहं तया त्राणं, भज भद्र ! सदागमम् // 665 // नो चेदाभ्यन्तरं चौरं, नीत्वा त्वां पापिपञ्जरे / कदर्थयिष्यन्ति कर्मपरिणामस्य पूरुषाः // 666 // इत्युक्तवत्या नीतोऽहं, तया भगवदन्तिकम् / दृष्टश्चौराकृतिश्चैवं, वध्यः सकलपर्षदा // 667 // पश्यतो भगवन्तं मेऽनाख्येयसुखमज्जनात् / मूर्छाऽऽगताऽथ शुद्धयाप्ती, मयाऽसौ शरणीकृतः // 668 // . आश्वासितो भगवता, मा भैषीरित्यहं ततः / मत्तोऽमी राजपुरुषा, दूरीभूताश्च तद्भिया // 669 // ततो विश्रम्भमाप्तोऽहं, पृष्टो व्यतिकरं त्वया / कथितश्च मया स्वीयवृत्तान्तो विस्तरादयम् // 670 / / वार्ता समन्तभद्रादेस्त्वत्प्रतीताऽपि योदिता / सा त्वत्प्रत्ययसिद्धयर्थं, तज्जातः प्रत्ययस्तव // 671 // सा प्राह बाढं जातो मे, प्रत्ययो वचने तव / परं त्वं चक्रवर्ती चेत् , किमीगिति मे वद // 672 // स प्राह भद्रे ! युवयोः, प्रतिबोधाय निर्मितम् / मयेदं तास्करं रूपं, प्रोक्तं भगवता यतः // 673 // भवतां पुरतश्चौर्य, समुद्दिश्याहमान्तरम् / चौरः संसारिजीवोऽयं, वध्यो नीयत इत्यहो // 674 // , मया गतायां च महाभद्रायां मम सम्मुखम् / तद्दर्शनात् प्रबुद्धेन, मनसीदं विचिन्तितम् // 675 // यद्यप्येषा महाभद्रा, जानात्येव गुरूदितम् / प्रज्ञाविशाला सकलं, चौर्यमाभ्यन्तरं मम // 676 // वार्ताया गन्धमप्यस्या, वेत्त्यद्यापि तथाऽपि न / अगृहीतार्थसङ्केता, मुग्धा सुललिता ततः // 677 // विप्रत्ययो भवेद् दृष्ट्वा, रूपं मे चक्रवर्तिनः / सदागमवचस्यस्या, उक्तव्यत्ययशङ्कया // 678 // किं चासौ पौण्डरीकोऽपि, प्रतिबुद्धो भविष्यति / एतन्मदीयवृत्तान्तं, श्रुतिद्वारैव भावुकः // 679 // इति ध्यात्वा कृतं रूपमन्तश्चौर्यस्य सूचकम् / वैक्रिया बहिरपि, स्फुटमेवंविधं मया // 680 // जगौ सुललिता कीटग, भावचौयं कृतं त्वया / कथं वा परवृत्तान्तं, जानासीत्यखिलं वद // 681 // अथानुसुन्दरोऽवादीदन्त्यौवेयकादहम् / सुकच्छविजये क्षेमपुर्यां जातो महोदयः // 682 // अत्रान्तरे महामोहादयः प्रत्यर्थिनो मम / भवितव्यतया लब्ध्वा छलं प्रोत्साहिता इति // 683 / / दूरस्थो यावदेषोऽस्ति, सम्यक्त्वादनुसुन्दरः / तावत् सर्वबलं कृत्वा, यतध्वं स्वार्थसिद्धये // 684 // अन्यथा स्वबलं लब्ध्वा, प्राग्वदेष भविष्यति / बाधाकृद् वस्तदधुना, किङ्करीक्रियतामयम् // 685 // ततस्तत्प्रेरितै ढं, वल्गद्भिरनियन्त्रितैः / वशीकृतस्तैराबाल्यादहं तन्मयतां गतः // 686 // ततस्तैः स्वीयवीर्येण कृतः पापपरायणः / कौमारे वर्तमानोऽहं. मद्यमांसरतोऽभवम् // 687 //
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