Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 292
________________ 217 श्लो० 658-717 ] वैराग्यरतिः। प्रसह्य पारदार्यादौ, प्रवृतौ यौवने प्रभुः / चक्रित्वे सेविता दोषाः, पापर्यायाः सहस्रशः // 688 // ततो लब्धप्रचारैस्तैर्नितरां मलिनीकृता / द्विषद्भिः चित्तवृत्तिर्मे, सुहृत्सैन्यं तिरस्कृतम् // 689 // तिरोहितं च क्षान्त्यादिशुच्यन्तःपुरमान्तरम् / राज्याद् बहिष्कृतश्चाहं कर्मवीर्यं प्रकाशितम् // 690 // तदा पापोदयो दीप्तो, मोहसैन्यं प्रवल्गितम् / जातानि तत्पुरादीनि, वो(चो)ढा सिन्धुः प्रमत्तता // 691 // विस्तृतं तद्विलसितं पुलिनं मण्डपो नवः / उद्भूतश्चित्तविक्षेपस्तृष्णाऽभूद् वेदिकाऽद्भुता // 692 // संस्कृतं च विपर्यासविष्टरं परिपोषिता / अविद्याऽऽख्या गात्रयष्टिर्महामोहेन भूभुजा // 693 // सर्वथैव नवीभृता, सामग्री सकला द्विषाम् / पर्यालोचस्ततोऽमीषां जातः स्वेष्टफलाश्रयः / / 694 // जगाद तत्र विषयाभिलाषः सचिवाग्रणीः / दृष्टदाहाः पुरा यूयं किन्तु वः कथ्यतेऽधुना // 695 // स्वक्षतिं प्राक्तनी प्रेक्ष्य, मन्दादरकृताद् रणात् / युष्माकं साम्प्रतं कर्तुं युक्तो मन्दोऽत्र नादरः // 696 // तीवादरेण तद् यूयं, यतध्वमधुनाऽखिलाः / यथा निष्कण्टकं राज्यं, भवेदाकालनिश्चलम् // 697 // प्रतिभातं वचस्तेषां. मन्त्रिणस्तत् ततश्च ते / तस्योपदेशमादृत्य, प्रेरयामासुराशु माम् // 698 // तैः कर्मपरिणामस्य, क्षेत्रस्थं वर्गणोद्भवम् / अशस्ताख्यं द्रव्यजातं, ग्राहितोऽहं स्वयं बहु // 699 // तैरेव ज्ञापितः कर्मपरिणामस्य भूभुजः / अहं चौरतया तेनादिष्टमेष विडम्ब्यताम् // 700 // मार्यतां दुःखमारेण नीत्वा द्राक् पापिपञ्जरे / मुदितास्ते दुरात्मानस्तदाकर्ण्य प्रभोर्वचः // 701 // ततश्च तैर्विलिप्तोऽहं, कर्माणुमलभस्मना / गात्रे गैरिकहस्तैश्च, चर्चितो राजसैस्ततैः // 702 // श्यामीकृतस्तृणमषीपुण्डुकैस्तामसैस्तथा / कर्णवीरस्रजा रागवीचिनाम्न्या विनाटितः // 703 / / मूर्ध्नि पापौग्र्यसूर्पण, हृदये घूर्णमानया / शरावमालया भ्रान्तिसन्तत्या च विडम्बितः // 704 / / स्वरूपे निहिताशस्तकर्मलोत्रो गोपमे / आरोपितोऽसदाचाराभिधे महति रासभे // 705 // क्रूराशयैर्यमसमैर्वेष्टितो राजपूरुषैः / कोलाहलैः कषायाख्यडिम्भानां प्रविसृत्वरैः // 706 // श्रूयमाणेन विरसडिण्डिमध्वनिना तथा / शब्दादिभोगसंज्ञेन, निन्दया च विवेकिनाम् // 707|| बाह्यलोकविलासेन, खलहासेन भूयसा ! निःसारितो वध्यभूमेः, सम्मुखं शून्यमानसः // 708 / / महाविदेहरूपेऽस्मिन् , हट्टमार्गे सुविस्तृते / आनीतो देशमेनं स्वदेशदर्शनकैतवात् // 709 // श्रुतो युष्माभिरुच्चैर्मबलकोलाहलस्ततः / आगता मे महाभद्रा, सम्मुखं विपुलाशया // 710 // इतश्चाहं परित्यज्य, स्वसैन्यं पृष्ठतोऽखिलम् / वृतो नृपः कतिपयैरुद्यानमिदमागतः // 711 // रक्ताशोकतले यावत्, स्थितस्योत्तीर्य वारणात् / राजपुत्रा विनीता मे, दर्शयन्ति वनश्रियम् // 712 // .. आगच्छन्ती मया तावन्महाभद्रा विलोकिता / तस्यां ममज्ज मे दृष्टिर्निवृत्त्य विषयान्तरात् // 713 // ववर्ष स्नेहषीयूषं, तस्यां मग्ना च दृग् मम / मयि स्नेहं दधौ पूर्वाभ्यासादेषाऽपि निःस्पृहा // 714 // ममाभ्यर्णमथ प्राप्ता, स्मरन्ती भगवद्वचः / अयं नरकगामीति, करुणापूर्णमानसा // 715 // ततः कदम्बमुनित्वेऽस्या(?), गुणधारणजन्मनि / चित्तार्पणान्मया भूयो, विनयाद्यनुशीलनात् // 716 // कृतश्चारुविमर्शोऽयं, केयं भगवती ननु / दृष्टमात्राऽपि याऽऽह्लाद, मानसे वितनोति मे // 717 // * वै-२८

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