Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 287
________________ 212 महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचिता [ अष्टम सर्गः इति निश्चित्य ते सर्वे रहस्यं ज्ञापितास्तया / स कर्मपरिणामश्च मोहिता बन्धवश्च मे // 542 // प्रस्तारमादधुर्भूयो मोह-पापोदयादयः / किन्तु दृष्टभयाश्चक्रुः सर्वे रहसि मन्त्रणम् // 543 // कः स्याजयोपाय ? इति प्राह मन्त्र्यथ गच्छतु / ज्ञानसंवरणस्तावद् समिथ्यात्वस्तदन्तिके // 544 // त्रीणि शैलेन्द्रयुक्तानि गौरवाणि श्रयन्तु तम् / पुरुषो प्रेषणीयौ द्वावार्त-रौद्राशयौ ततः // 545 // लेश्या यास्यन्त्यथो कृष्ण-नील-कापोतसंज्ञकाः / स्वत एव तदभ्यण तिस्रस्तत्परिचारिकाः // 546 // वयं तु भूयः संस्थाप्य नदी दीर्घा प्रमत्तताम् / रचनां मण्डपादीनां कुर्महे प्रयताः परम् // 547 / / एवं नः कुर्वतां कार्यमनायासेन सेत्स्यति / तदिदं रुचितं मन्त्रिवचो मोहादिभूभुजाम् // 548 // समर्थितं तैस्तद्वाक्यं प्रारब्धा मन्त्रितक्रिया / अथ तेष्वन्तिकस्थेषु हृत्तरङ्गा ममोत्थिताः // 549 // यथाऽहो! मे परं तेजो ममाहो ! गौरवप्रथा / अहो ! युगप्रधानोऽहं कोऽपि नैवाऽस्ति मत्समः // 550 // अमात्योऽपि जगत् त्यक्त्वा कलाः सर्वाः समागताः / अहंपूर्विकया तीर्थे मय्येव प्रियमेलके // 551 // प्राक्पर्याये नरेन्द्रोऽहमधुना सूरिपुङ्गवः / जात्यहेम्न इवोद्दीप्तिः कदा जाता न मे गुणैः // 552 // .. महान् वंशो महद्वैर्य महती धीमहत्तपः / महान् मम प्रतापश्च महतां सकलं महत् // 553 // ईदगविकल्पशिखरैर्वर्धमानैर्यथोत्तरम् / ममानन्तानुबन्धेन शैलराजो व्यजम्भत // 554 // ज्ञानावरणमिथ्यात्वे महागहनसन्निभे / नियतस्थितिके तत्र ताभ्यां क्षिप्तस्तमस्यहम् // 555 // शास्त्रार्थ तद्विलासेन विदन्नपि न वेम्यहम् / पठामि पाठयाम्यन्यं व्याचक्षे शून्यचेतसा // 556 // / तथाभूतस्य मे भ्रष्टं सार्द्ध पूर्वचतुष्टयम् / शेषज्ञानं तु नो नष्टं विपर्यस्तं तु मोहतः // 557 // अत्रान्तरे नदी पूर्णा चित्तवृत्तौ च वाहिता / प्रमत्तताऽऽख्या रिपभिाक्षेपावर्तभीषणा // 558 // गौरवाणि व्यजम्भन्त ततो मयि विशेषतः / कुभावनास्तदुत्कर्षान्ममाभूवन् सहस्रशः // 559 / / , सन्ति मे विपुला वस्त्र-पात्र-पुस्तकसम्पदः / महाजनानां नेताऽहं प्राज्ञाः शिष्या ममेदृशाः // 56 // प्रत्यासीदन्ति मां सर्वाः सिद्धयश्चाणिमादिकाः / इति प्राप्तर्द्धिदृप्तेन मयेष्टाऽनागताऽपि सा // 561 / / भोज्यं नीरसमुत्सृष्टं भुक्तं च सरसं मया / बद्धा तत्र रतिर्लोल्यात् प्रार्थनाऽनागतेऽपि च / 562 // सुखे शारीरके तोषः कृतः शय्या-ऽऽसनादिजे / मया प्राप्ते तथा लौन्यं प्रवर्तितमनागते // 563 // गा(गौ)रवत्रयमग्नेन तदानीमेवमादृतम् / शिथिलत्वं मया व्यक्तं विहायोगविहारिताम् // 564 // आर्त्ताशयोऽप्याविरभूत ततो दुष्टविकल्पभूः / रौद्राशयस्तदा पार्श्वे तस्यास्थाद् व्यापृतस्तु न // 565 // ततः समागताः कृष्ण-नील-कापोतसंज्ञकाः / दौःशील्यकारिकास्तिस्रो लेश्यास्तत्परिचारिकाः // 566 // इतश्च चित्तविक्षेपो मण्डपो वेदिका च सा / चित्तवृत्तौ कृता सज्जा रिपुभिर्विष्टरं तथा // 567|| तिरोबभूवुश्चारित्रधर्मराजादयस्ततः / जातोऽहं मुनिवेषोऽपि मिथ्यादृष्टिशिरोमणिः // 568 // लब्धावकाशा रिपवः स्वेच्छया व्यलसंस्तदा / आयुर्नामाऽथ सन्दिष्टो भूपतिर्मम भार्यया // 569 / / निरूपयोचितं स्थानमार्यपुत्रस्य साम्प्रतम् / तेनोक्तं दृष्टमेवास्ति स्थानमस्योचितं मया // 570 // स कर्मपरिणामोऽस्य विरक्तो दुश्चरित्रतः / पापोदयं पुरस्कृत्य मोहसैन्येऽधुना गतः // 571 / /

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