Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti
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________________ 206 महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचिता [ अष्टमः सर्गः परोपकारः स्तोकोऽपि दयां परिणिनीषिता / त्याज्यो निखिलसत्त्वानां दर्शनीया च बन्धुता // 370 // परोपकारः कर्त्तव्यः सेव्या च समता सदा / नोदासितव्यमन्येषां व्यसनेषु महात्मना // 371 / / मोक्तव्यो जातिवादश्च मृदुतां स्वीकरिष्यता / कुलाभिमानः सन्त्यायो वर्जनीयो बलस्मयः // 372 // स्वान्ताद् रहयितव्यश्च रूपोत्सेकः प्रसृत्वरः / परिहार्यस्तपोगर्यो निर्वास्यो धनितामदः // 373 // श्रुतावलेपः क्षेतव्यो लाभावष्टम्भसंयुतः / वाल्लभ्यकस्यानुशयः कार्यश्च शिथिलः सदा // 374| विनयोऽभ्यसनीयश्च सात्मीकार्या च नम्रता | नवनीतसहाध्यायि कर्त्तव्यं सर्वथा मनः // 375|| त्यजतो भयवैक्लव्यं परिहासमकुर्वतः / अनुद्घाटयतो मर्म परेषां शान्तचेतसः // 376 // वाक्पारुष्यं च पैशून्यं मौखयं चोक्तिवक्रताम् / अभूतोद्भावनं भूतनिहवं चाप्यतन्वतः // 377 // वरणत्र जमागत्य स्वयमेव निधास्यति / गुणानुरक्ता दयिता कण्ठे राज्ञोऽस्य सत्यता // 378 // सद्भावसारमाचारमनुशीलयता स्फुटम् / त्यजता चित्तकौटिल्यमृजुदण्डोपमात्मना // 379 // शल्यमुद्धरता प्रत्याहरता क्लिष्टलेश्यताम् / महाराजेन ऋजुता वशीकार्या प्रयत्नतः // 380|| ... परपीडापरद्रोहभीरुतां हृदि बिभ्रति / जानाने च परद्रव्यापहारापायहेतुताम् // 381 // संस्मृत्य दुर्गतः पातं कम्पमाने च रागिणी / एष्यत्य चौरता नूनं स्वयमेव स्वयंवरा // 382 // विवेको निर्भरः कार्यो मुक्ततां पुनरिच्छता / भाव्याऽऽत्मनः सदा बाह्याभ्यन्तरग्रन्थभिन्नता // 383 / / दीता ग्रन्थपिपासा च शमनीया शमाम्भसा / अर्थ-कामाम्बु-पङ्काभ्यामूद्ध स्थेयं च पद्मवत् // 384 // पाणी जिवृक्षता ब्रह्मरति कन्दमुनेऽमुना / स्वकीया मातर इव प्रेक्ष्याः सर्वा अपि स्त्रियः // 385 / / न वस्तव्यं तद्वसतौ न कार्या जातु तत्कथा / न सेच्या तन्निषद्या न प्रेक्यं तःसुन्दरेन्द्रियम् // 386 / / स्थेयं रतिस्थमिथुनकुड्याभ्यणे कदापि न / न स्मार्य पूर्वललितं नाऽऽहार्य स्निग्धभोजनम् // 387 / / त्याच्या तदतिमात्रा च राढा च तनुगोचरा / रताभिलाषिता सर्वोदलनीया च यत्नतः // 388 // . अनित्यतामशुचितां दुःखतामात्मभिन्नताम् / पुद्गलानां भावयते देहादिपरिणामिनाम् // 389 // त्यजते कुविकल्पौधं तत्वं विमृशते हृदि / सद्बोधोऽस्मै समादाय विद्याकन्यां प्रदास्यति // 39 // (युग्मम् ) भोगाभिलाषास्तापाय मनसो मृतये जनुः / कुटुम्बसङ्गः क्लेशाय वियोगाय प्रियागमः / / 391 // शोकाय जनवाल्लभ्यमात्मबन्धाय कल्पना / कीटस्य कोशकारस्य तन्तुना रचना यथा // 392 / / प्रवृत्तिः परमं दुःखं निवृत्तिः परमं सुखम् / इत्यस्य ध्यायतो रक्ता भविष्यति निरीहता // 393 // (विशेषकम् ) तदेते सद्गुणास्तासामुपलम्भाय भूभुजाम् / दशानामपि कन्यानां संस्तोतव्याः प्रयत्नतः // 394 // राज्ञोऽस्य कुर्वतश्चैवं स कर्मपरिणामराट् / चारित्रधर्मराजाचं स्वबलं दर्शयिष्यति // 395 // अनुरूपगुणाभ्यासाद् रञ्जनीयाश्च ते भटाः / रक्तास्तेऽस्मिन् हनिष्यन्ति मोहादिद्विषतां बलम् // 396 // भावराज्यं ततो लब्ध्वा निष्कण्टकमयं नृपः / कान्ताभिर्विलसंस्ताभिः प्रकृष्टं शर्म लप्स्यते // 397 // ततः कन्दमुनिः प्राह कालेन कियता पुनः / महाराजस्य भगवन् ! सेत्स्यतीदं प्रयोजनम् / / 398 // भगवानाह षण्मासैर्मयोक्तं त्वरयाम्यहम् / आदातुं भगवन् ! दीक्षां विलम्बस्तदियान् वृथा // 399 // .
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