Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti
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________________ 204 महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचिता [ अष्टमः सर्गः अस्ति तस्यां महाराजः सुस्थितः परमेश्वरः / सुन्दरेतरकार्याणां स हेतुस्ते जगत्प्रभुः // 313 // एकरूपोऽप्यनेकोऽसावचिन्त्यगुणभाजनम् / अव्ययो निष्कल: शुद्धः परमात्मा सनातनः // 314 // स बुद्धः स महादेवः स विष्णुः स पितामहः / स वीतरागो भगवान् कथितस्तत्त्वदर्शिभिः // 315 / / निरिच्छो न करोत्येष त्वत्कार्यव्यूहमिच्छया / किन्वाज्ञा विद्यते तस्य लोकानां करणोचिता // 316 // यदुतकार्या निरन्धकारेयं चित्तवृत्तिर्महाटवी / हन्तव्यं रिपुबुद्ध्या च महामोहादिकं बलम् // 317 // चारित्रधर्मराजाचं पोष्यं बन्धुधिया बलम् / आज्ञेयमियती विश्वहितकृत् पारमेश्वरी // 318 // ध्यानेन ब्रह्मविधिना स्तवेन व्रतचर्यया / इयमाराध्यते शिष्टैर्दुष्टाचारैर्विराध्यते // 319 // तां च यो यावतीं धीमानाराधयति सर्वदा / अजानतोऽपि तद्रूपं तस्य तावद् भवेत् सुखम् // 320 // यो यावत् कुरुते मूढस्तदाज्ञाया विराधनम् / तावद् दुःखं भवेत् तस्य तद्रूपावेदिनोऽपि हि // 321 // तदाज्ञालचनाद् दुःखं तदाज्ञाकरणात् सुखम् / अतः स निर्वृतिस्थोऽपि जगतां हेतुरुच्यते // 322 // शुभाशुभानां कार्याणामतस्ते गुणधारण ! / स एव परमो हेतुरिष्यते नात्र संशयः // 323 // पूर्वं तदाज्ञालोपात् ते जाता दुःखपरम्परा / अधुना सुखलेशोऽयमीदृशस्तद्विधायिनः // 324 // यदा तु तस्य सम्पूर्णामाज्ञामाराधयिष्यसि / तदा सुखप्रकर्षो यो ज्ञास्यसे(सि) तद्रसं स्वयम् // 325 // प्रधानगुणभावेन तदेते हेतवोऽखिलाः / मिलिताः कुर्वते कार्यं नत्वेकेनापि वर्जिताः // 326 // मयोक्तं कार्यसामग्री सम्पूर्णेयं निवेदिता / सूरिराह महाराज ! प्रायशः प्रतिपादिता // 327 // अन्तर्भावोऽवशिष्टानां हेतूनामत्र कथ्यते / यद् वा यदृच्छा नियती प्रविष्टे भवितव्यताम् // 328 // ततो विगतसन्देहस्तत् स्वीकृत्य गुरोर्वचः / पृष्टवानपरं सूरिं सन्देहं प्राग् वितर्कितम् // 329 // . भूमौ व्योम्न च सस्पर्द्व नभश्वरबलद्वयम् / स्तम्भितं केन भगवंस्तदा रणरसोद्धतम् // 330 // . सूरिभाषे तत्रापि हेतुः पुण्योदयस्तव / परमस्तस्य माहात्म्यात् प्रसन्ना बनदेवता // 331 // तया बलद्वयं सर्वं स्तम्भितं रक्षिता मृतिः / त्वदिच्छया खेचराणां मुक्तास्ते शान्तविग्रहाः // 33.2 // तयाऽपि यत् कृतं कार्य ज्ञेयं पुण्योदयस्य तत् / अयमेव हि सत्कार्ये बाह्य हेतुप्रचोदकः // 333 // पुण्य-पापोदयौ तस्माद् मुख्यहेतू शुभाशुभे / निमित्तमात्रं बाह्यास्तु पदार्था गुणधारण ! // 334 // मयोक्तं भगवन् ! नष्टोऽधुना मे संशयोऽखिलः / बुद्धं च तत्त्वं यत् पूर्व सुस्थिताज्ञाविलङ्घनात् // 335 // तैः कर्मपरिणामाद्यैर्महामोहादिपोषतः / क्रुद्धैः प्रचोदितात् पापोदयाद् दुःखं बभूव मे // 336 // यदा स्वयोग्यतापेक्षसुस्थितानुग्रहाद् मम / जातं ज्ञानं कृतः पोषश्चारित्रादिबलस्य च // 337 // तैः कर्मपरिणामाद्यैरनुकूलैस्तदा मम / प्रौढपुण्योदयद्वारा दाप्यते सुखमालिका // 338 // केवलं भगवद्भिर्यत् प्रोक्तं पुण्योदयेन ते / ईदृक् सुखलवो दत्तस्तत्र मे कौतुकं महत् // 339 // यतो यस्मिन् दिने लब्धा मया कनक(मदन)मञ्जरी / दिव्यरत्नसमूहाश्च भाभि नुसनाभयः // 340 //
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