Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti
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________________ महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचिता [ अष्टमः सर्गः प्रनृत्यन्ती मयूरीव पाथोदप्रेक्षणोन्मदा / अमान्ती स्वान्तकल्लोलैस्तटिनीव रयोद्धता // 82 // सा विस्मितसुधापूरैः शुभ्रितद्रुमपल्लवा / मया रसान्तरे मग्ना दृष्टा पश्यति वल्लभे // 83 // ततस्तां तादृशी प्रेक्ष्य मया मनसि चिन्तितम् / तोषिताऽनेन यूनेयमहो ! दुष्कररोचिका // 84 // अस्या निर्भग्नचापोऽपि भूविधौ ननु वेधसा / अहो ! अस्य गुणैरेव हन्ति बालामिमां स्मरः // 85 / / आनुरूप्येण मिथुनमिदं धात्रैव योजितम् / सद्भावमीलनात् सिद्धमधुना नः समीहितम् // 86 // संयोगमनयोर्युक्तं विधाय कुरुतां विधिः / अयोग्ययोगजनितस्वकलङ्कापमार्जनम् / / 87|| अथ साई वयस्येन ततः स्थानाद् गतो युवा / ततः सा प्राप सङ्कोचं सूर्ये गत इवाब्जिनी // 88 // गतरत्नेव सञ्जाता भृशं मनसि विह्वला / ततो मयोक्तं कः खेदो यद्यसौ रुचितो वरः ? / / 89 // समीपे गम्यतां भर्तृदारिके ! जनकाऽम्बयोः / तयोः स्वां रुचिमुद्भाव्य त्वरया त्रियतामयम् // 10 // सप्रमोदपुरेशस्य मधुवारणभूभुजः / भविष्यत्येषु तनयो गुणर्योग्यस्तवेदृशैः // 11 // भूभृद्भिर्न यदाक्रान्तं निखिलैरपि ते मनः / आक्रामन् दृत्रिभागेन तदेष माभृतां गुरुः // 92 // . तयोक्तं मे लवलिके ! रुचितोऽयं भृशं जनः / अहं तु रुचिता नास्मै तूर्णं गच्छेत् कुतोऽन्यथा // 93 // उन्मूलयति धैर्य मे स्नेहस्तेनैकपाक्षिकः / निर्भग्नकतटः सिन्धुपूरः प्रान्तद्रुमं यथा // 94 // मयोक्तमेवं मा वादीन स्वामिनि ! रुचिं विना / स स्यात् तव मुखज्योत्स्नापानलम्पटलोचनः // 15 // रुचिताऽसि भृशं तस्य शङ्कामपनयानघे ! / रोचते किं न भृङ्गाय मालती हसिता मधौ / // 16 // वैदग्ध्यादेव तूर्णं च तेनापक्रमणं कृतम् / परिणामगुरुः स्नेहः सतामापाततो लघुः // 97 / / इति मद्वचसा किञ्चित् स्वस्थीभूताऽपि साऽब्रवीत् / सखि ! गन्तुं न शक्नोमि वपुरस्वस्थमस्ति मे // 98 // न मोक्तव्यं मयोद्यानमिदं ताताऽम्बयोर्वद / त्वं च वार्त्तामिमां तूर्णं गत्वा तत्त्वार्थकोविदे ! // 99 // ततो मत्वाऽऽग्रहं तस्या दुर्वारं विनिवेश्य ताम् / गुप्तद्रुमलतामध्ये तल्पे पल्लवनिर्मिते // 100 // . आगताऽहमिहोत्पत्य तमालश्यामलं नभः / देवोऽम्बा च तदत्रार्थे प्रमाणं वाच्यमुत्तरम् // 101 // ततो राज्ञोदितं देवि! त्वं तावद् याहि सत्वरम् / वत्सां सन्धीरयष्यामि सामग्रीसम्पदा वहम् // 102 // यन्मे मनोऽस्ति साशङ्ख रुषा विद्याधरा गताः / तद्वृत्तान्तोपलम्भाय प्रयुक्तश्चटुलो मया // 103 // तेन सम्पादनं युक्तं सामग्र्याः प्राभृतस्य च / वरयोग्यस्य तत्कालविलम्बो मे भविष्यति // 104 / / तत् तूर्ण देवि ! गच्छेति धृत्वाऽऽज्ञां मूर्ध्नि तां प्रभोः / वेगादिमां लवलिको पुरस्कृत्याहमागता // 10 // दृष्टा पल्लवतल्पे सा स्थिता मदनमञ्जरी / तत्रैव किश्चिद् ध्यायन्ती योगिनीव वचोऽतिगम् // 106 // ज्ञात्वा लवलिकावाचा स्निग्धया लब्धचेतना / मामागतां समुत्थाय पतिता मम पादयोः // 107 // मया प्रोक्तं चिरं जीव वत्से ! प्राप्नुहि वल्लभम् / मनोऽभिवाञ्छितं भुझ्व सुखानि सुभगा भव // 108 // ततश्चोत्थाप्य साऽऽवाता मूर्युत्सङ्गे निवेशिता / उक्ता च खेदं मा कार्षीः सिद्धं तव समीहितम् // 109 // त्वरां करोति सामग्र्याः कार्येऽत्र जनकस्तव / तच्छत्वेयत् क मे भाग्यमित्युक्त्वा न्यग्मुखी स्थिता // 110 // 1. माभृद्धि //
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