Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti
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________________ 195 प्रलो० 25-81] वैराग्यरातः / दृष्ट्वा सा तत्र निखिलान् विद्याधरनरेश्वरान् / न्यवारयद् घृणां धृत्वा तन्मिथ्यागुणवर्णनम् // 54 // जगौ च मात तेषु कोऽपि मे रोचते वरः / तदाकर्ण्य विषण्णाऽहं तद् भूपाय निवेदितम् // 55 // विषण्णः सोऽपि मां प्राह वत्सा वेश्मनि नीयताम् / माऽस्या भूद् वपुरस्वास्थ्यं चित्तदुःखोदयादिति // 56 // निर्गताऽहं ततो लात्वा तां स्वयंवरमण्डपात् / प्राप्ता गृहमियं स्वीयं निषण्णाऽविरताग्रहा // 57 // ततो लवलिका प्राह मां मातः ! को भविष्यति / अस्याः पाणिग्रहोपायो ? मया प्रोक्तं न वेम्यहम् // 58 // इयं तव प्रियसखी नूनं दुष्कररोचिका / प्रष्टव्या तद् भवत्येव पर्यालोचो हतोऽत्र नः // 59 // इत्युक्त्वा रोदितुं लग्ना विकीर्णरहमश्रुभिः / ततो लवलिका प्राह विषादं स्वामिनि ! त्यज // 6 // प्रश्नयिष्याम्यहमिमां नेयं सन्तापकारिणी / पित्रोभविष्यतीत्येवं मम स्वास्थ्यं कृतं तया // 61 // इतश्च खेचरोर्वीशास्ते स्वयंवरमण्डपात् / दृष्ट्वाऽवृतवरामेव गतां मदनमञ्जरीम् // 62 // विलक्षा हृतसर्वस्वा इव लोष्टुहता इव / कनकोदरराजेन्द्रं रुषाऽसम्भाष्य निर्गताः // 63 // ततो राजा ययौ शोकं लङ्कितं वर्षवद दिनम / सप्तो रजन्यां नायाता निद्रा दःखेन केवलम // 6 // निद्रालवेऽथ गमितप्रायायामागते निशि / स्वप्ने चत्वारि दृष्टानि द्वौ नरौ द्वे च योषितौ // 65 // तैः प्रोक्तं मुञ्च खेदं त्वं नरेन्द्र कनकोदर ! / वरो दृष्टचरोऽस्माभिस्तव पुत्र्या भविष्यति // 66 // तवान्यान्वेषणेनालमियं नान्यवरोचिता / द्वेष्या अस्माभिरेवास्याः कृता विद्याभृतोऽखिलाः // 67|| जातं प्रभातं स्वाप्नार्थं बुद्ध्वा स्वस्थोऽभवन्नृपः / अथाऽपृच्छल्लवलिका सखी मदनमञ्जरीम् // 68 // अधुना वद किं कार्य ? सा प्राह पितरौ यदि / आज्ञां दत्तस्तदा भ्रान्त्वा स्वयमेव वसुन्धराम् // 69 // वरं वृणोमि रुचितं पूरयामि मनोरथम् / प्राह तन्मे लवलिका मया राज्ञे निवेदितम् // 70 // अनेन चिन्तितं चित्ते वत्सया चारुमन्त्रितम् / लाभोपायो वरस्यायं स्वप्नोक्तस्य भविष्यति // 71 // साऽनुज्ञाता ततस्तेन धात्री लवलिकान्विता / बभ्राम निखिलां तत्र व्यतीताः केऽपि वासराः // 72 // अहं राजा च तत्स्नेहात् स्थितौ सोन्माथको भृशम् / अत्रान्तरे लवलिका सविषादा समागता ||73 / / एकाकिनी विषण्णां च तां दृष्ट्वा चित्तमावयोः / विषण्णं सा मया पृष्टा भद्रे ! कुशलिनी सुता // 74 // सा प्राह देवि ! कुशलं सुतायास्तव वर्तते / सम्पन्नो यस्तु वृत्तान्तः सर्व तं कथयामि ते // 75 // निर्गत्येतः किलावाभ्यां प्रेक्षितं भूमिमण्डलम् / भूरिग्रामपुराकीर्णं नानावृत्तान्तसङ्कुलम् // 76 / / सप्रमोदपुरं प्राप्ते क्रमात् तत्र बहिर्वनम् / आह्लादमन्दिरं दृष्टं स्थिते तस्योपरि क्षणम् // 77 // सुकुमाराकृती तत्र दृष्टौ राजसुतावुभौ / स्मरार्ताऽभूत् प्रियसखी पश्यन्त्येकं तयोः पुनः // 78 // अवतीर्य मया सार्धं भूतले सा ततः स्थिता / तयोर्दग्गोचरे चूतवने दूरस्थिते मनाक् // 79 // प्रेक्षमाणा नृपसुतं तमेव चानिमेषदृग् / न्यस्ताऽजद्रोहिणी दृष्टिस्तस्यास्तेनापि सम्मुखम् // 8 // ततः सा स्निग्धदृक् पीतचन्द्रिकेव चकोरिका / स्फुटमोदा विकसिता पमिनीव रवेः करैः // 8 // . 1. कृत्वा // 2. सा स्वीयभवनं // 3. वराथं भूदिरक्षया / गता लवविकायुक्ता // 4. मातः! // इमामि पाठान्तराणि ग्रन्थकारस्य //
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