Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 272
________________ ग्लो० 82-239 ] वैराग्यरतिः। 197 अत्रान्तरे गतो भानुरस्तमुल्लसितं तमः / प्रक्षालितनभःपङ्का चन्द्रज्योत्स्ना च पप्रथे // 111 // विनोद्य तां विचित्राभिः कथाभिरतिवाहिता / कृच्छ्रान्निशोदिते सूर्ये प्रोक्ता लवलिका मया // 112 // निरूपय निजस्वामिमार्ग स्थित्वा विहायसि / चिरयत्येष किमिति श्रुत्वा सोचं स्थिताम्बरे // 113 // स्थित्वा च क्षणमात्रं सा समुत्तीर्णा प्रमोदभाग् / मयोक्तं किं सहर्षाऽसि ? किं स्वामी ते समागतः? // 114 // अनया प्रोक्तमद्यापि स्वामी नाम्ब ! समागतः / किन्त्वागतौ राजसुतौ तौ द्रष्टुं भर्तृदारिकाम् // 115 // निरीक्षितं वनं ताभ्यां न दृष्टा भर्तृदारिका / ततो विषण्णस्तत्प्रेयान् द्वितीयेनेति भाषितः // 116 // स्थेयं चूतवेनेऽत्रैव कुमार गुणधारण ! / यत्र सा प्रेक्षिता सुभ्रूरन्यत्र भ्रमणेन किम् // 117 // कदाचिद् दैवयोगेन सा तत्रैवोपलभ्यते / एवमस्त्विति तेनोक्ते तं देशं तौ प्रजग्मतुः // 118 // ततोऽहं मुदिताऽस्मीति सा निशम्यापि तद्वचः / प्रत्यायिताऽपि शपथैः प्रत्ययं न दधौ हृदि // 119 // मया प्रोक्तं लवलिके ! कुमारं मे प्रदर्शय / येन स्वयं तमानीय वसामाह्लादयाम्यहम् // 120 // ततस्तयाऽहमानीता कुमार ! तव सन्निधिम् / तदुत्थाय कुमारस्तां दुःखार्ता द्रष्टुमर्हति // 121 // कुलन्धरस्य वदनं मया संप्रेक्षितं ततः / तेनोक्तं गम्यतामत्र किं कुमार ! विरुध्यते ! // 122 // ततोऽस्माभिर्गतं तत्र सा दृष्टोद्दिष्टलक्षणा / जातः सुखामृते मग्नस्तदर्शनरसादहम् // 123 // प्राप्तः प्रेयान् स एवायमिति हृष्टाऽवलोक्य माम् / उक्त्वा चिराद् दृष्ट इति कागच्छेदिति तर्कभाग् // 124 // स्वप्नोऽयं प्रत्यय इति सविषादा स्थिरत्वतः / सनिर्णया वियोगेऽपि जीवितेत्युदितत्रपा // 125 // प्रपद्यते कथमसौ मामित्युद्वेगरिता / प्रेक्षते मामयमिति सविकासा च साऽभवत् // 126 // अनेकभावसङ्कीर्णरसनिर्भरमानसा / सा वीक्षिता मया स्निग्धलोललोचनपङ्कजा // 127 // ततः सा कामलतया प्रोक्ता ते प्रत्ययोऽजनि / वत्से ! लवलिकावाक्ये स्मित्वाऽथाधोमुखी स्थिता // 128 // जातः प्रमोदः सर्वेषामागतोऽत्रान्तरे नृपः / स्फुरद्रत्नप्रभाजालै रिविद्याधरैर्युतः // 129 // आह्वादमन्दिरोद्यानमवतीर्य नभस्तलात् / रत्नैर्भूतविमानौद्यः सानन्दः कनकोदरः // 130 // कृतमस्माभिरुत्थानं प्रतिपत्तिः कृतोचिता / स्थिताः सर्वे यथास्थानं तेनाऽहं वीक्षितश्विरम् // 131 // निश्चितश्च स एवायमिति सन्तुष्टचेतसा / पृष्टा कामलता सर्वं वृत्तान्तं प्राह मामकम् // 132 // ईदृशे नररत्ने या निर्बबन्ध मनस्तया / स्वाग्रहो देवि ! नियूंढः प्राहेति कनकोदरः // 133 // ततः कामलता प्राह सत्यमेतन्न संशयः / कदापि किं कामयते शक्रादन्यं पुलोमजा ? // 134 // अत्रान्तरे समागत्य चटुलेन निवेदितम् / कनकोदरभूपस्य कर्णे किमपि धीमता // 135 // ततो विलम्बेन कृतमिति कामलतां प्रति / वदन् मदनमञ्जर्या विवाहं कनकोदरः // 136 // अकारयन् मां संक्षेपात् स्थाने तत्रैव पावने / अदर्शयद् विमानौघं नानारत्नभृतं ततः // 137 // कुलन्धराय प्रोचेऽमून् रत्नपूगानिहाऽऽनयम् / राजपुत्रस्य कोशार्थं तदेतान् स्वीकरोत्वसौ // 138 // स प्राह यूयमेवात्र प्रमाणं प्रश्न एष कः / प्रदाय तां ततस्तुष्टो राजा कनकशेखरः [कनकोदरः] // 139 // -- 1. 'वने तत्र //

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