Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 275
________________ 200 महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचिता [अष्टमः सर्गः उपकन्दमुनि(नि) ज्ञातः स्थितः स च चरैर्मया / तत्रावश्यं भवन्तं सस्नेहेन प्रतिपत्स्यते // 198 // सद्बोधः प्राह राजेन्द्र ! युक्तमुक्तमिदं त्वया / अत्र प्रयोजनेऽद्यापि विलम्बः किन्तु युज्यते // 199 // स हि पुण्योदयस्तस्य स च साताभिधः सुहृत् / कियन्तमपि कालं स्तो भूरिभोगफलावहौ // 20 // यावत् तदनुवृत्त्याऽयमध्यास्ते भोगभाग्गृहम् / तावन्न मे सविद्यस्य युक्तं गन्तुं तदन्तिके // 201 // . धर्मादपि भवन् भोगो रुणद्धि चरणागमम् / चन्दनैरपि सञ्छन्नो मार्गो भवति दुर्गमः // 202 // केवलं प्रेष्यतां तस्य पार्श्वेऽसौ स्वसुतः प्रभो ! / गृहिधर्मः सभार्यस्तत्प्रस्तावोत्यधुना शुभः // 203 // इमं देव ! स भावेन गतमात्रं प्रपत्स्यते / इष्टा भवित्री तस्याऽस्य कान्ता सदगुणरक्तता // 204 // सदागमस्य सान्निध्याद् द्रव्यतोऽनन्तशोऽमुना / असौ गतो यदा त्वस्य गतः पाच महत्तमः // 205 // तदा तेनाऽप्ययं नीतो वात्सल्यातिशयात् सह / पल्योपमपृथक्त्वे तं गतेऽसौ भावतोऽश्रयत् // 206 // ततो यदा यदा दृष्टौ महत्तम-सदागमौ / असंख्यवाराः स प्राप्तो भावेनाऽमुं तदा तदा // 207 // . . . अधुना तस्य पार्श्व स्तो महत्तम-सदागमौ / प्रहीयतां विशेषेण तत्पार्श्वे तदसौ द्रुतम् // 208 // कर्महासो मनःशुद्धिर्गुर्वी चैव सुखासिका / तस्याऽस्मदाभिमुख्यं च स्याद् विशिष्यास्य संस्तवात् // 209 / / प्रस्थाप्यतां ततस्तस्य गृहिधर्मोऽयमन्तिके / यास्यामि पश्चात् प्रस्तावं गत्वाऽहं विद्ययाऽन्वितः // 210 // मन्त्रिणो वचनं श्रुत्वा तदिदं नीतिनिर्मलम् / चारित्रधर्मराजेन्द्रः प्रजिघाय सुतं निजम् // 211 // आपृच्छ्य स ततः कर्मपरिणाममहीभुजम् / मदन्तिके समायातस्तत्रैवाऽऽह्लादमन्दिरे // 212 // आविर्भूतो ममाग्रेऽसौ शृण्वतः कन्ददेशनाम् / प्रकाशितश्च तेनापि श्रितो बन्धुधिया मया // 213 // गुणरक्ततया युक्तस्तथा द्वादशमानुषैः / कुलंधरेण पल्या च गृहिधर्मो ममादृतः // 214 // . मया पृष्टो मुनीन्द्रोऽथ कन्दः स्वप्नार्थसंशयम् / स प्राह निर्णयो न स्यादस्यातिशयिनं विना // 215 // सर्वज्ञा गुरवः सन्ति दूरे मे निर्मलाभिधाः / तान् वन्दिष्ये यदा तेऽमुं तदा प्रक्ष्यामि संशयम् // 216 // संशयो हृदि ते जातो योऽयं स्वप्नद्वयाध्वना / एकमार्गप्रणाल्या तं ते छेत्स्यन्ति महाधियः // 217 // मया प्रोक्तं कथञ्चित् ते भदन्त ! गुरवो यदि / अत्राऽऽयान्ति भवेत् तर्हि शोभनादपि शोभनम् // 218 // मुनिराह महाभाग ! गतोऽहं गुरुसन्निधौ / त्वगिरा तांश्च विज्ञाप्य पूरयिष्यामि कामितम् // 219 // ज्ञात्वाऽत्र ते भवद्भावमेष्यन्ति स्वयमेव वा / सम्यक्त्वसहितः पाल्यो गृहिधर्मस्त्वया परम् // 220 // इदं कन्दमुनेर्वाक्यं श्रुत्वा तच्छासनस्थितः / समित्रश्च सभार्यश्च तं नत्वाऽहं गृहे गतः // 221 // ततः सोऽपि मुनियुक्तो मुनिभिर्गुरुसन्निधौ / प्रययावुपविन्ध्याद्रि करीव कलभान्वितः // 222 // अथ लोकान्तरीभूतः पिता मे मधुवारणः / ततो राज्येऽभिषिक्तोऽहं बन्धुमन्त्रिमहत्तमैः / / 223 // उज्ज्वलैरपि रक्तं मे गुणैपालमण्डलम् / मरुद्भिरपि सद्भक्तिस्थैर्य मयि समादृतम् // 224 // न नामितं कचिच्चापं कृता भ्र व भङ्गुरा / तथापि मां नताः सर्वे शत्रवो भयभङ्गुराः // 225 // एकच्छत्रमभूद् राज्यं परच्छत्रहृतेर्मम / तथापि विपुला छाया चित्रं जगति पप्रथे // 226 // 1. च स्नेहेन //

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