Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 242
________________ 167 प्रलो० 112-169 ] वैराग्यरतिः। आपानकतया भेद्र ! भवमेव जगी मुनिः / जीवा अनन्ताः सन्त्यत्र मद्यपाः कर्म मद्यति // 141 // विशिष्य चासवायन्ते कषाया घातिकर्मणाम् / पटलानि सुरायन्ते भाजनन्न्यायुरालयः // 142 // चषकन्ति तदाधारतया गात्राणि जन्मिनाम् / कर्ममद्योपयोगित्वान्नीलाब्जन्तीन्द्रियाणि च // 143 / / घूर्णन्ते कर्ममद्येन मत्ताः सर्वेऽपि जन्तवः / विलासहासविब्बोककोलाहलपरायणाः // 144 // कलहा मर्दलायन्ते खलानामत्र सङ्कथाः / लसत्कंसालकायन्ते दैन्यं वीणायतेऽर्थिनाम् // 145 // वंशवाद्यायते लोकशोकाक्रन्दितसन्ततिः / मुखवाद्यायते गाढमग्नमूर्खविचेष्टितम् // 146 / / मत्तकान्त जनायन्ते सदानन्दा इहामराः / उदारविभ्रमाः प्रौढकान्तायन्तेऽप्सरोगणाः // 147|| संसारापानकमिदं लोकाकाशप्रतिष्ठितम् / लौल्याय जडबुद्धीनां वैराग्याय विवेकिनाम् // 148 // लोकानां मुनिनोद्दिष्टा भेदास्तत्र त्रयोदश / कीर्त्तितः प्रथमो राशिस्तत्रासांव्यवहारिकः / / 149 / / वनस्पतय आख्यातास्ततः सांव्यवहारिकाः / क्षित्यम्बु-वह्नि-पवनाः कथितास्तदनन्तरम् // 150 // ततो द्वयक्षास्ततस्यक्षास्ततश्च चतुरिन्द्रियाः / ततश्चासंज्ञिपञ्चाक्षाः कीर्त्तिता नारकास्ततः // 151 // ततः पश्चाक्षतिर्यच्चो नराः संमूर्छ-गर्भजाः / ततश्चतुर्विधा देवाः सङ्गीतास्तदनन्तरम् // 152 // वाचोयुक्त्या ततः प्रोक्ता ब्राह्मणा इति संयताः / मुक्तात्मानस्ततो गीता भवापानकनिर्गताः // 153 // एतेषु स्थानदशके भ्रान्ति स्वस्य पुनः पुनः / वदन्नदीपयदसौ भवापानकदुःस्थताम् // 154 // यत्तु तैाह्मणैः पश्चाद् दृष्टो यत्नेन बोधितः / अहमित्यादि तत्सर्वं युज्यते सुधिचारितम् // 155 // अनादिभव्यभावेन प्राप्ता घर्षणघूर्णनात् / उत्कृष्टावस्थितिहासे द्रव्यश्रुतिरनन्तशः // 156 / / तथापि यन्न लभते न ज्ञानं न च दर्शनम् / सच्चारित्रं च जीवोऽसौ कर्मघस्मरकः स्मृतः // 157 // विभ्रान्तचित्तस्तेनैव ब्रम्भ्रमौति भवोदधौ / सद्दर्शनमवाप्नोति कदाचित् कश्चिदेव हि // 158 // कालादियोगतो भित्त्वा कर्मग्रन्थि शुभाशयात् / ततः सुसाधुवचसां बोधो हुङ्कार उच्यते // 159 // दर्शनं मुक्तिबीजं च सम्यक्त्वं तत्ववेदनम् / दुःखान्तकृत् सुखारम्भः पर्यायास्तस्य कीर्तिताः // 160 // सति चास्मिन्नधन्यात्मा रमते भववारिधौ / पश्यत्यस्य परं रूपं स्पष्टं नष्टाक्षिरोगवत् // 161 // तद् दृष्ट्वा चिन्तयत्येवमहो ! भीमो भवोदधिः / दुःखाय जन्म मरण-व्याधि-शोकायुपद्रुतः // 162 // सुखाय तु परं मोक्षः सकलक्केशवर्जितः / तस्य हेतुरहिंसादिहिंसादिर्भवकारणम् // 163 // बुदैवं भवनैर्गुण्यं मुक्तेश्च गुणरूपताम् / मोक्षोपाये प्रयतते यथागममुदारधीः // 164 // शमारोग्यलवं प्राप्य संसारख्याधिपीडितः / निःशेषतत्क्षयोपाये दुष्करेऽपि प्रवर्त्तते // 165|| सदुपायफलप्राप्तेश्चारित्रोत्साहतः कमात् / भूत्वा स सर्ववित् क्षीणकर्मा याति शिवालयम् // 166 // सुसाधुगुरुसम्पर्कजन्येयं श्रेयसां ततिः / युक्तमुक्तमतस्तेन बोधितो ब्राह्मणैरहम् // 167 // सर्वे ह्यविरता जीवाः कर्ममधरताः किल / स्थिता अपि भवापाने साधवस्तत्पराङ्मुखाः // 168 // प्रवाजितोऽसौ तैरेव कर्ममद्यान्निवारितः / जरयित्वा बहिर्गन्ता तदजीर्णमतो व्रतैः // 169 // 1. मित्र / // 2. धौ / रूपं निरूपयत्यस्य प॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316