Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 263
________________ 188 महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचिता [सप्तमः सर्गः अरत्याऽपि कृतो भद्रे / सन्तापोटेगविह्वलः / नाटितश्च भयेनाहं राज्यभ्रंशादिशङ्कया // 735 // शोकेनाऽप्यभिभूतोऽहं धननाशादिहेतुना / जुगुप्सयाऽपि दलिता तत्त्वमार्गमतिर्मम / / 736 // सुतैर्दुषगजेन्द्रस्य रागकेसरिणस्तथा / विहितं यत् कषामें तत्तु वक्तुं न पार्यते // 737 // ज्ञानसंवरणेनापि हृतो ज्ञानलवोऽपि मे / दर्शनावरणेनाहं स्वापितो गाढनिद्रया // 738 // कचिदाह्लादितः कापि वेदनीयेन तापितः / घनवाहनरूपेण धारितश्चायुषा तदा / / 739 // नामनाम्ना स्ववीयं च शरीरे मम दर्शितम् / तथा गोत्रान्तरायाभ्यां स्वस्वकार्येविनाटितः // 740 // रौद्राऽऽर्तध्यानसहितः कृतो दुष्टाभिसन्धिना / अन्यैरपि बलं मोहभटैः स्वं स्वं प्रदर्शितम् // 741 // अथायातो नितान्तं मां कदर्थयितुमन्यदा / महामोहमहीशक्रसमीपे मकरध्वजः // 742 // तुष्टो मोहः समायातं तं दृष्ट्वा सपरिच्छदम् / सोऽपि तदर्शनात् तुष्टः शिखीव घनदर्शनात् / / 743 // गन्धेभ इव सन्नद्धी महामोहस्तदन्वितः / विधाय विषयैरन्धं मामत्यन्तमबाधत // 744 / / मग्नो भोगपुरीपेऽहं ततो रात्रिंदिवं स्थितः / भूयसाऽपि न कालेन तृप्ति, समपद्यत / / 745 // भोगेनैव च भोगानां वृद्धा मे भोगतृष्णका / तस्यामौर्वानले साधूपदेशोऽम्भ इवाऽभवत् // 746 // ततः सदागमो नष्टः सिध्यन्ति च मनोरथाः / मम पुण्योदयस्तत्र हेतुर्बुद्धो मया न सः // 747 // ततोऽवधूय निखिलं राज्यकार्य दिवानिशम् / स्त्रैणमन्तःपुरगतं भुञ्जानोऽहं मुदा स्थितः // 748 // ततो' या या मया दृष्टा कुलजाऽकुलजाऽथवा / सूरूपा स्त्री समाकृष्य सा सा स्वान्तःपुरे धृता / / 749 // गणितं न मया पापं कलङ्गं ददता कुले / निवारकाणां वचनं मन्त्रिणामप्युपेक्षितम् // 750 // ततो मे बान्धवा हीणा मदुश्चरितवीक्षिणः / विरक्ताः सर्वसामंता निर्विण्णं चाखिलं पुरम् / / 751 // भृत्या अपि निनिन्दुर्मी गुणाः पूज्या न संस्तवः / मया तु लोकगर्दा सा नाहता भोगभिक्षुणा // 752 // अथाऽसीद् मे कनिष्ठो यो भ्राता नीरदवाहनः / पराक्रमी त्रपाशीलो विनीतो नीतिपारगः // 753 // सर्वैविरक्तैर्मत्तोऽसौ पौरमन्त्रिमहत्तमैः / एकवाक्यैश्च सामन्तैर्भाषितो रहसि स्थितः // 754 // अगम्यगामी मूढात्मा निर्लज्जो धर्मवर्जितः / श्वेव राज्यश्रियो नायं योग्योऽस्ति धनवाहनः // 755 // अयं स्ववंशदाहाय समुत्पन्नो दवानलः / त्वद्राज्यस्नात्रसलिलैविध्यापयितुमिष्यते // 756 // यावन्न प्रतिराज्येषु वृत्तान्तोऽयं प्रसर्पति / विचार्य कार्य राजा त्वं तावद् भवितुमर्हसि // 757|| नो चेत् तवैष न भ्राता न राज्यं न विभूतयः / न वयं न यशः शुभ्रं पुरं नेदं भविष्यति // 758 // युक्तं प्रोक्तो घनैरिस्थं स पर्यालोचमागतः / नष्टो मम दुराचीणोद्विग्नः पुण्योदयस्तथा // 759 / / पापमयर्गलीभूतं वृद्धं भावद्विषां बलम् / स्थितिमा॑घीयसी चाभूत् सर्वेषां कर्मणां पुनः // 760 // ततस्तद्वचनं लग्नं भ्रातुश्चेतसि सङ्गतम् / एवमस्त्विति तेनोक्ते मत्तो बद्धो जनैरहं // 761 // मध्ये मत्परिवारस्य निषेद्धा कोऽपि नोत्थितः / क्षिप्तोऽहं चारके क्रूरैस्ततो मन्त्रिमहत्तमैः // 762 / / राज्ये च स्थापितो हर्षपूर्ण रदवाहनः / तुष्टाः कुस्वामिनाशेन लोकाः सुस्वामिनो गुणैः // 763 // 1. तथा //

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