Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 261
________________ महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचिता [ सप्तमः सर्गः त्वत्तोऽप्येषा कृपणता प्राणदाऽभूद् ममाधिका / हिता बहुलिकाऽप्युच्चैर्यया निर्वासितो रिपुः // 691 // तच्चार चारु विहितं त्वयाऽऽगत्य नरोत्तम ! / भक्तिस्तवेयं सद्भावसौहृदद्रुममञ्जरी // 692 // एवं ब्रुवाणं प्रत्याह महामोहः परिग्रहम् / साधूदितं त्वया वत्स ! सागरोऽयं ममासवः // 693 // निर्मिथ्यो मम भक्तोऽयं न्यासस्थानं ममौजसः / मत्पुत्रराज्ययोग्योऽयमयं रक्षाक्षमस्तव // 694 // महामोहेन तेनैवं सागरो गीतगौरवः / परिभूय मम स्वान्तं बाधते स्म सदागमम् // 695 // / ततः स्फीतधनाकाङ्को बहिष्कृतसदागमः / जातोऽहं पूर्ववत् त्यक्तधर्मा विषयभिक्षुकः // 696 // ततस्तं मम वृत्तान्तमाकर्ण्य करुणोदधिः / सोऽकलको मदभ्यर्णमागन्तुं पुनरेहत // 697 / / विज्ञप्ताः कोविदाचार्यास्ततस्तेन प्रणेमुषा / धनवाहनबोधाय व्रजामीत्यथ तेऽवदन् // 698 // मा गास्तदन्तिकं क्लेशस्तवायं निष्फलो यतः / तत्पार्श्वे जागरूको स्तो महामोह-परिग्रहौ / / 699 // तयोः पार्थे समायान्ति सागराधाः पुनः पुनः / मूर्छाशोषादिका दोषाः प्रलापज्वरयोरिव // 700 // तेषामाश्रयभूतौ तावब्धिनद्याविवाम्भसाम् / तद्वशस्य च तस्य स्यात् क सदागममीलकः // 701 // ऊपरे बोजवपनमन्धाोलेख्यदर्शनम् / उद्वर्त्तनं शबस्येदं तस्य या धर्मदेशना // 702 / / अत्यल्पस्तस्य संस्कारः पूरयेत् त्वद्गिरा भवन् / न स्वाध्यायक्षति गुर्वी कूपं जलमिवाञ्जलेः // 703 // धनवाहनपार्श्वे तत् पर्याप्तं गमनेन ते / विपरीतफले कार्ये निष्फले च यतेत कः // 704 // अकलङ्कस्ततः प्राह कदैताभ्यां वियोक्ष्यते / घनवाहनराजोऽयं ततः सूरिरभाषत // 705 / / चारित्रधर्मस्य नरेश्वरस्य महत्तमो योऽस्ति जगत्प्रसिद्धः / विद्याभिधानाऽस्ति तदीयकन्या मनोभवा ज्ञातजगत्स्वभावा // 706 // जगत्त्रयातीतवरेण्यपुण्यलावण्यलीलागुणकल्पवल्लिः / ब्रह्मव्रतस्थैर्यभृतां पदं सा धत्ते मुनीनामपि मानसेषु // 7.7|| तारुण्यमेषा विषयावभासं व्यतीत्य बाल्यं रुचिरं बिभर्ति / आत्मावभासं शुचिभावकान्तिविस्तारविक्षोभितरागिवर्गम् // 708 // . तत्त्वावभासो विनिवृत्तिरूपस्तस्या वपुर्भूषणतां बिभर्ति / बाह्यं पुरो यस्य सुवर्णरत्नविभूषणं भाति सतां न किञ्चित् / / 709 / / सा सर्वकल्याणवनाम्बुधारा धर्मान्तरायद्रुमपशुधारा / आनन्दसन्दोहकरी बुधानां विश्रामभूमिर्मनसां सदैव // 710 // भिन्नो महाभाग्यभृतः किलास्याः प्राप्नोति नेच्छन्नपि चाटुशर्म / भृङ्गं विनाऽन्यो न वसन्तफुल्लवासन्तिकासौरभभोगयोग्यः // 711 // यदा वदान्यः परिणेष्यतीमां कन्यां नरेन्द्रो घनवाहनोऽयम् / अस्मात् तदा यास्यति मोहदोषो मलः सुवर्णादिव शुद्धिभाजः // 712 // 1. याऽऽदर्शदर्शनम् //

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