Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 260
________________ प्रलो० 634-690 ] वैराग्यरतिः। 185 हा भर्तवत्सले बाले ! हा हा मदनसुन्दरि ! क गताऽसि रुदन्तं मां विहाय घनवाहनम् ? // 663 // दीयतां दर्शनं देवि ! पीयतां त्वद्वचो मया / लीयतां मम देहे च त्वया शोकोऽपनीयताम् // 664 // अकलङ्कस्य वचनमिति प्रलपता मया / नादृतं स पुनः प्राह मां कृपामना मुनिः // 665 // विधातुं बालचरितं नेदं युक्तं भवादृशाम् / धनवाहन ! धीरत्वं भज क्लैब्यं परित्यज // 666 // स्मरात्मानं कुरु स्वस्थं मनो मोहमपाकुरु / परिग्रहेण सहितं शोकं च शिथिलीकुरु // 667 // समाचरोपदेशं मे सदागममनुव्रज / भवप्रदीपनादीन् किं दृष्टान्तान्न स्मरस्यहो ! ? // 668 // व्यसनानि करस्थानि भवस्थानां हि देहिनाम् / वियोगाः सुलभास्तीत्रव्याधयश्चाविदूरगाः // 669 // प्रत्यासन्नानि दुःखानि ध्रुवा च यमयातना / विना विवेकं न त्राणं पुरुषस्य ततः परम् // 670 // ततोऽगृहीतसङ्केते शीधुमत्तो भयादिव / मन्त्रादिवाहिना दष्टः सुप्तो बोधध्वनेरिव / / 671 // ततोऽकलङ्कवचनाजातोऽहं लब्धचेतनः / प्रोक्तः प्रणम्य शोकेन मोहो देव ! व्रजाम्यहम् // 672 / / न मामत्रासितुं दत्तेऽकलङ्कः प्राह मोहराट् / दुष्टोऽयं भावि नो विद्मः किमस्मादावयोरपि // 673 // घनवाहनमेषोऽमुं प्रतारयति तद् व्रज / अधुना त्वं पुनः कार्य प्रतिजागरणं त्वया // 674 // तथेत्युक्त्वा गतः शोको मया तत् स्वीकृतं वचः / आकलकं धृतश्चित्ते प्रियत्वेन सदागमः / / 675 / / स्मारितं पूर्वपठितं मनाग मोह-परिग्रहौ / त्यक्तौ कियान् कृतोऽपूर्वश्रुतस्य ग्रहणादरः // 676 // कारिता जिनचैत्यैर्भूः शुभ्रा यात्राः प्रवर्तिताः / तुष्टोऽकलङ्को जातो मे श्रमोऽत्र फलवानिति // 677 / / परिग्रहस्य मित्रस्य विरहाद् विधुरेण माम् / प्रनितः सागरेणाथ सङ्गं तु रागकेसरी // 678 // आज्ञां तस्य ददौ सोऽपि ततो बहुलिकाऽवदत् / छा येव सागरस्याहमनुगच्छामि तेन तम् // 679 / / ततस्तामपि स प्राह वत्से ! यातु भवत्यपि / प्राणभूता कृपणताऽप्यनुगच्छतु सागरम् // 680 // समागतानि मत्पाश्च ततस्तानि तदाज्ञया / दृष्टौ तदर्शनाद् वाढं महामोह-परिग्रहौ // 681 // मामालिलिङ्ग सोत्साहमादौ कृपणता ततः / जाता धीः किमदृष्टार्थ ममेयद्दविणव्ययैः // 682 / / अकलङ्कश्च मामेष प्रोत्साहयति सर्वदा / यदि भावस्तवेऽशक्तस्ततो द्रव्यस्तवं कुरु / / 683 // तद्वारा व्ययितं चास्ति मया बहुतमं धनम् / ध्यायन्तमालिलिङ्गेत्थं स्नेहाद् वहुलिकाऽथ माम् // 684 / / ततः कबद्धिर्जाता मे यथेतः कर्षयाम्यमुम् / वाग्भझ्या स्निग्धया येन न भवेन्मे धनव्ययः // 685 // ततोऽकलङ्कोऽभिहितो मया यूयं समागताः / उपकाराय युष्माभिः स च सम्पादितो मम // 686 // सम्पूर्णो मासकल्पो वैः सूरयो मोन्मनीभवन् / उपालम्भश्च मे मा भूद् यूयं विहरतेत्यथ // 687 / / चिन्ता न कार्या निर्देशं करिष्ये भवतामहम् / अकलङ्को निशम्येदं विहृतो गुरुमभ्यगात् // 688 // ततो निवार्य भूयोऽपि धर्महेतोर्धनव्ययम् / रक्तः परिग्रहे जातः सागरस्याहमाज्ञया // 689 // ततः परिग्रहेणोक्तः सागरः साध्वहं त्वया / रक्षितः क्षीयमाणाङ्गो वैद्येनेव रुजाऽऽर्दितः // 690 // 1. रागकेसरिणा प्रोक्तं वत्से ! यातु भवत्यपि // 2. व्ययितं भूयो धनं किं करवाण्यथ / भ्या // 3. वः मोन्मनीभूद्भवद्गुरुः // . वै-२४

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