Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 259
________________ महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचिता [सप्तमः सर्ग: धर्मघोषाभिधं प्राप्य सूरि तस्यान्तिके ललौ / दीक्षां तेन निजस्थाने क्रमाञ्चासौ निवेशितः // 634 // स एषोऽहं महीपाल ! विज्ञेयः कोविदस्त्वया / भ्राता मे बालिश: सझंकुमित्रेण विनाशितः // 635 // अहं सदामेनैव दुःरूजालाद् विमोचितः / सम्प्रत्यपि करोम्याज्ञामतोऽस्यैव हितैषिणः // 636 // दुष्टः सङ्गस्तसत्याग्यो न त्याज्यश्च सदागमः / हितैषिणामिदं तत्त्वं स्वचरित्रेण दर्शितम् // 637 // आकर्येदं गुरोर्वाक्यं ममेदं हृदये स्थितम् / त्याजयत्येष मां हन्त महामोह-परिग्रहौ // 638 // सदागमेन सार्द्धं च संस्तवं कारयत्यलम् / ततः किं करवाणीति यावञ्चिन्तापरः स्थितः // 639 // भावं ज्ञात्वाऽकलङ्केन तावदुक्तोऽहमञ्जसा / बुद्धं भागवतं वाक्यं किं न वा घनवाहन ! ! // 640 // मयोक्तं सुष्टु बुद्धं स प्राह तत् क्रियतामिदम् / अकलके मनः प्रेम्णो गाढरूढतया ततः // 641 // अचिन्त्यत्वात प्रभावस्य कोविदाचार्यसन्निधेः / कर्मग्रन्थेः पुनः प्रत्यासन्नत्वादत्तराक्षमः // 642 // अकलङ्कस्य वचनम्हं तत् प्रतिपन्नवान् / भूयः सदागमोऽभ्यर्णे तदा मम समांगतः // 643 // प्रवर्तितं पुनर्दानादिकं प्रगुणिता क्रिया / दूरीभूतौ मनाग मत्तौ महामोह-परिग्रहौ // 644 // . टजयोऽथाकलङ्कस्य श्राद्धोऽहं द्रव्यतोऽभवम् / निर्मूर्छ इव संसारे सन्तुष्ट इव वैभवे // 645 // ततो मां तादृशं ज्ञात्वा सोऽन्यत्र सह सूरिणा / विजहाराकलकोऽथ महामोह-परिग्रहौं // 646 // मत्वा तं दूरगं पार्श्वे ममे प्रोल्लसितौ पुनः / गतः समागमो दूरे क्रिया सा शिथिलीकृता // 647 // जातोऽहं भोगमूछौंन्धों धनसङ्ग्रहतत्परः / कृतानि स्त्रीसहस्राणि हेमकूपा मया मृताः / / 648 // अहिरण्याकृता पृथ्वी मयाऽज्यधनहारिणा / न कृतं यद् मया मोहात् तंत् पापं नास्ति भूतले // 649 / / ततः पुण्योदयः क्रुद्धो दृष्ट्वा दुश्चरितं मम / हंता शूलाद् महादेवी नाम्ना मदनसुन्दरी // 65 // अत्रान्तरे महामोहस्वामिमूलं समागतः / शोकाख्योऽवसरं ज्ञात्वा स मामालिङ्गति स्म च // 651 // स्मृत्वा स्मृत्वा ततो देवी प्राणेभ्योऽप्यतिवल्लभाम् / मुक्तकण्ठं रुदन् दीनो जातोऽहं दुःखपूरितः // 652 // राज्यकार्य परित्यक्तं संस्कारश्च तनोरपि / जातो ग्रहगृहीतोऽहमतिविबलमानसः // 653 // श्रुत्वाऽकलङ्कस्ता वार्ता लोकोक्त्या मामुपाययौ / शोकेन विह्वलं दृष्ट्वा कृपयेदमभाषत // 654 // घनकाहन ! किं कर्त्तमारब्धमसमञ्जसम् / शोकदावाग्निजलदो विस्मृतः किं सदागमः // 655 // शोकोऽयं तव संस्मार्य देवी मदनसुन्दरीम् / स्वान्तं यद् बाधते भद्र ! तबीजं किं न बुध्यसे // 656 // कृतान्ताहिमुखे सर्वे पतिताः सन्ति जन्तवः / जीव्यते क्षणमप्येतैर्यत् तदेव महाद्भुतम् // 657|| प्रतीक्षते दशां नैष प्रेमसम्बन्धबन्धुराम् / सर्वान्निर्दलयत्येव जनान् सर्वंकषो यमः // 658|| मृत्युन भेषजैश्चित्रैर्मापनेयः सुरैरपि / इत्यशक्यप्रतीकारे तत्र को विबलो भवेत् // 659 // अन्तं स्वकर्मणा नीतां तां देवीं मुग्धं ! मा शुचः / आत्मैव भवता शोच्यो नेष्यमाणः स्वकर्मणा // 66 // करोत्येवमविश्रान्तः स सुधीधर्मदेशनाम् / दृढशोकानुवृत्त्या तु तामहं लक्षयामि न // 661 / / प्रलपामि च हा बाले ! हा चार्वङ्गि ! वरानने ! हा सुभ्र ! हा विशालाक्षि ! हा रम्भोरु ! प्रियंवदे ! // 662 / / 1. येत्य° // 2. ययौ / दृष्ट्वा मामक्तिशोकात्तं कृ // 3 अक्षते / /

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