Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti
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________________ 174 महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचिता [सप्तमः सर्गः स्मयो न कार्यो ज्ञानदे॒र्हसनीयाश्च नाबुधाः / त्याग्यो विवादोऽबुद्धानां न कार्य बुद्धिभेदनम् // 345 // कार्यः कुपात्रे न न्यासः पात्रतैवं भविष्यति / भवतां विग्रहवती शमश्री वजन्मभूः / / 346 // ततः सिद्धान्तसाराणि दारयन्ति गुरवो मुदा / स्पष्टमष्ट ततो वृद्धिमुपयास्यन्ति धीगुणाः // 347 // शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा / ऊहोऽपोहोऽर्थविज्ञानं तत्त्वज्ञानं च ते स्मृताः // 348 // सेव्या चासेवना शिक्षा भजनीया प्रमार्जना / प्रत्युपेक्षणमानेयं भिक्षाचर्या च सात्मताम् // 349 // दातव्याऽऽलोचना सम्यक् शिक्ष्या निर्दोषभोजिता / परिकर्मविधिः पात्रगतो ग्राह्यो यथाऽऽगमम् / / 350 // विचारचर्याऽनुष्ठेया प्रेक्ष्याः स्थण्डिलभूमयः / शुद्धमावश्यकं कार्य कालग्रहविधिस्तथा // 351 // स्वाध्यायनिरतैर्भाव्यं कार्या प्रतिदिनक्रिया / पञ्चाचाराः पालनीयाः स्थातव्यं चाप्रमद्वरैः / / 352 // भावी ततो वो निर्वाणप्रवणो गुणसञ्चयः / एवं गुणार्जनोपायं दर्शयन्ति महाधियः // 353 / / भवन्ति भावरत्नानां भद्रकास्ते परीक्षकाः / ततस्तदुक्त क्रियया जायन्ते स्वार्थसाधकाः // 354 // अयं ज्ञेयो हितज्ञस्य चारूक्तवरशिक्षया / रत्नौधैनिजबोहित्थभरणस्योद्यमक्रमः // 355 // मूढेन च न चारूक्तं प्रतिपन्नं विचेष्टितम् / प्रत्युत प्रतिकूलं यत् तत्रेयं भद्र ! भावना // 356 // मूढानभिमुखीकर्तुं यतन्ते मुनयो यदा / दूरभव्यानभव्यान् वा तदेत्थं ते प्रचक्षते // 357 // श्रमणा ! भवदिष्टेन कार्य मोक्षेण नास्ति नः / भवतामपि तत्रालं गमनेन सुखोज्झिते // 358 // न तत्र खाद्यं नो पेयं न गीतं हसितं च न / न तत्र कान्ता मदिरामदघूर्णितलोचनाः // 359 // अयं संसारविस्तारो रम्यो नः प्रतिभासते / यथेष्टमनुभूयन्ते यत्र लीलाविभूतयः // 360 // कृतं तन्मोक्षवादेन संसारः सुखकारणम् / भुक्त्वाऽत्र विपुलं सौख्यं पश्चान्मुक्तो गमिष्यथ // 361 // भवन्तो धर्मवादेन येन सन्ति च गर्विताः / अस्माकमपि सोऽस्त्येव देवातिथिमुदावहः // 362 // कुर्महे चण्डिकादीनां तृप्ति छागादिशोणितैः / गवा-ऽश्व-मनुज-च्छागैस्तथा यागं चतुर्विधम् // 363 / / निहत्य दुःखितान् दुःखं मोचयामः कृपालवः / पापाऽबारितं सत्रं यच्छामो विपुलं पलैः // 364 // तदाकर्ण्य प्रभाषन्ते मुनयो भवतामसौ / नैव युक्तो भवासङ्गः सुखं नास्त्यत्र तात्त्विकम् // 365 // भोगा भोगा इवा हेया दारुणाः क्लेशवर्धनाः / मायाकरण्डिका नार्यो विलासाश्च विडम्बनाः // 366 // मोक्षस्त्वात्मव्यवस्थानं व्याधिक्षयसमं सुखम् / तस्मात् तमुत्सृज्य मवव्यासङ्गो वः स्ववैरिता // 367 // धर्मानुष्ठानबुद्धया च यदिदं जन्तुघातनम् / तदप्यनन्तसंसारवर्धनं पापजन्मभूः // 368 // मा कुरुध्वमतो धर्ममीदृशं धूर्त्तवञ्चिताः / कुरुध्वं सुमुनिप्रोक्तं तदहिंसादिलक्षणम् // 369 // मूढा वितन्वते द्वेषं श्रुत्वेदं मुनिभाषितम् / वदन्ति यात यूयं भोः ! शिक्षणीया वयं तु न // 370 // नियन्त्रयथ नो भोगैर्निषिद्धैनिन्दथाऽधमाः ! / अस्माकं धर्मरत्नानि तद् यूयं नो महारयः // 371 // यदि वो रोचते नान्तः सद्धर्मोऽस्माकमीदृशः / ततोऽलं भवदीयेन धर्मेण पुरुषाधमाः ! // 372 // इदमाकर्ण्य मुनयो बृयुर्यावत् कृपापराः / भूयो धर्मगति तावत् कुपिताः प्रहरन्ति ते // 373 // 1. तत्वव्यवमितिश्च ते // 348 // से //
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