Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti
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________________ 175 प्रलो० 460-516 ] वैराग्यरतिः। ऊवमारोहणीयं तत् ताभ्यो निःसार्य तत्त्वया / आरोहतस्ततस्तुर्यपदिकासु प्रतिक्षणम् // 490 // यास्यन्त्युपद्रवाः काश्य तापः स्तोको भविष्यति / तस्याम्रकाभिलाषश्च मनागल्पीभविष्यति // 491 // शोषं यास्यत्यान्तेषद् रजः किञ्चिच्छटिभ्यति / ततो मनाक् सुखं लब्ध्वा तद्भविष्यति भास्वरम् // 492 // कृतास्वारोहणीयं तत् ततः पञ्चमलेश्यया / पैदिकास्वस्य सन्तापो भावी स्तोकतरस्तदा // 493 // उपद्रवास्तनुतरा भविष्यन्ति भविष्यति / तनीयस्याम्रवाञ्छा च देहः शुष्कतरस्तथा // 494 // पतिष्यति रजो भूरि मनाक् संरोदयति क्षतम् / प्राप्स्यतीदं महाह्लादं धावल्यं धारयिष्यति // 495 // वधिष्यते तदङ्गेन भविष्यति महोन्नतम् / आरोहणीयं तत् षष्ठपदिकासु ततस्त्वया // 496 // तासु चारोहतस्तस्य ल्यं यास्यन्युपद्रवाः / भविष्यति स्तोकतमं दुःखं लौल्यं त्रुटिष्यति // 497|| सर्वथा चार्द्रता शोषं प्रयास्यति तदङ्गतः / भूयिष्ठो रेणुनिचयस्ततः परिपतिष्यति // 498 // भविष्यति सदानन्दं शुद्धस्फटिकनिर्मलम् / आप्यायितं च तत् तत्र धर्मध्यानेन वायुना // 499 // सुखकारितया मन्दः शीतः सत्तापनाशनात् / गुणाम्बुजरजःसङ्गात् सुरभिश्च समेति सः // 50 // अस्ति वानरयूथं च तत्रोच्चपदिकात्र ये / संलीनं विषवृक्षेषु सर्वथा विगतस्पृहम् / / 501 / / शम-सन्तोष-सत्याद्यैर्वानरेन्द्रैरधिष्ठितम् / वानरीभिति-श्रद्धा-धारणाद्याभिराश्रितम् // 502 // समाधि-ब्रह्म-शौचादिवरवानरराजितम् / तस्य वानरजीवस्य तदत्यन्तहितावहम् // 503 // आरूढस्योच्चपदिकास्वाविर्भूय करिष्यति / शुक्लध्यानाख्यगोशीर्षचन्दनद्रवसेचनम् // 504 // ततोऽर्धमार्गेऽतिक्रान्ते गाढानन्देन निर्भरम् / समारोदयंति सिद्धार्थमत्युच्चपदिकासु न // 505 // आत्मभृतेन तेनोच्चैनीतस्त्वं तावती भुवम् / निःसहं तद्विमुच्यो गन्तव्यं भवता ततः // 506 // पर्यन्ते पदिकामार्गमपि त्यवत्वा स्वशक्तितः / पञ्चहस्वाक्षरोच्चारकालं स्थित्वा विहायसि // 507 / / निरालम्बेन रूपेणोड्डीय गन्तव्यमुच्चकैः / शिवालयमठे स्थेयं शाश्वतानन्दशालिना // 508 // मैया गुरूपदेशोऽयं प्रतिपन्नः प्रणेमुषा / दिशाऽनया वानरकं तन्मठे नयनक्षमः // 509 // अथाकलको मौनीन्द्रवचोभावविदब्रवीद् / चारु चारूपदिष्टं ते गुरुणा ज्ञानभानुना // 510 // चारु तद्वचनं कर्तुं मुनिराज ! प्रवर्त्तसे / प्रत्यासीदति मुक्तिस्त्वां कृतेदृशमनोजयम् // 511 // ततोऽगृहीतसङ्केते ! सोऽकलङ्को महाशयः / आर्दीकत्तुं मम मनो ववर्षेमां वचःसुधाम् // 512 // स्फुटाक्षरैरनेनेत्थं मुनिना यन्निवेदितम् / तद् भद्र ! भवताऽबोधि किं न वा घनवाहन ! // 513 // चित्तमेव समाख्यातमनेन क्लेशवर्जितम् / मोक्षस्य प्रापकं मुख्य सामग्र्यन्या तदर्थिका / / 514 // लेश्यानां परिणामेन तत् क्लेशत्याजनक्षमम् / शुद्धेष्वध्यवसायेषु गच्छदेवोपपद्यते // 515 // इदं हेतुर्भवस्यापि शिवस्यैव न केवलम् / यत् पूर्वपदिकारूढं हट्टमार्गे नयत्यदः // 516 // 1. पदिकास्वङ्गसन्तापो // 2 भूरि क्षतीधै रोक्ष्यते मनाक् / प्रा° // 3. सत्याधर्वानरः परिवारितम् / 4. क्ष्यति विश्रांतम // 5. दिशाऽनया वानरकं तन्मठे नयनक्षमम् / इति मे गुरुणा प्रोक्तं तदाज्ञा क्रियते मया // 509 // अथा° //
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