Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti
View full book text
________________ लो० 228-287 ] वैराग्यरतिः। स्वस्थानं भृतबोहित्थो यियासुश्वारुरित्यथ / व्यचिन्तयद् मदीयानां मित्राणां का व्यवस्थितिः // 258 // इति ध्यात्वा गतो योग्यसमीपं स जगौ गृहम् / यास्याम्यहं प्रवृत्तिः का तव योग्यस्ततोऽब्रवीत् // 259 // बोहित्थं पूर्यतेऽद्यापि न ममार्जितवानहम् / रत्नानि कानिचिच्चारुर्जगौ किमियदन्तरम् / / 260 // ततो योग्यो जगौ सर्व स्वप्रमादविजृम्भितम् / चारुणोक्तं तवायुक्तमात्मवञ्चनमीदृशम् // 261 // जानीपे सुखहेतुत्वं रत्नानां त्वमशङ्कितः / तथापि तानि नादत्से काननादिकुतूहलात् // 262 // धूतिस्ते कौतुकादस्मान्न चिरादपि भाविनी / तद् वरं स्वार्थसम्पत्तिः स्वार्थभ्रंशो हि मूर्खता // 263 // जिहेषि किं न ? रत्नानां रत्नपेऽप्यनर्जनात् / अतः प्रमादं सन्त्यज्य कुरु रत्नार्जनं सदा // 264 // अन्यथाऽहं प्रयास्यामि मम सिद्धं प्रयोजनम् / एवं प्रवत्तमानस्त्वं भ्रष्टः स्वार्थाद् भविष्यसि // 265 // इदं चारुवचः श्रुत्वा हीणो योग्यो भृशं हृदि / सर्वं कुतूहलं मुक्त्वा जातो रत्नार्जनोथतः // 266 // अथ चारुर्हितज्ञस्य गत्वा पार्श्वमवोचत / अहं स्थाने गमिष्यामि तव किं मित्र ! वर्तते ? // 267 // ततश्चारोहितज्ञेन काचादि स्वार्जितं धनम् / दर्शितं स्नेहसारेण कथितं चात्मचेष्टितम् // 268 // ततश्चारुः कृपापूर्णो हितमं प्रत्यभाषत / मुग्धोऽसि विप्रलब्धस्त्वं धूर्ते रत्नापरीक्षकैः // 269 // रत्नद्वीपमुपेतस्य तव कर्तुं न युज्यते / कौतुकं काननादौ च स्वार्थसंसिद्धिमिच्छतः // 270 // निशम्य तद्वचश्चारोहितज्ञः स्वहितार्थिताम् / विदस्तस्य तदादेशात् त्यक्त्वा सर्व कुतूहलम् // 271 // तत्प्रसादेन जानानः सर्वरत्नगुणागुणान् / सङ्ग्रहंश्चारुरत्नानि काचादीनि परित्यजन् // 272 // स्वयं परीक्षको जातः स्वार्थसिद्धिपरायणः / अथ चारुर्जगादेवं गतो मूढस्य सन्निधौ // 273 / / अहं गृहे व्रजिष्यामि प्रवृत्तिस्तव मित्र ! का ? / मूढः प्राह गृहे गत्वा किं भवान् साधयिष्यति ! // 274 // वापी-कूप-महारामपुष्पराजिविराजिते / द्वीपेऽत्र सुचिरं भोक्तुं सुखं युक्तं मनोरमे // 27 // स्थित्वाऽत्र सुचिरं पश्चाद् गमिष्यामो निजालये / भृतं मयाऽपि बोहित्थं वर्त्तते रत्नराशिभिः // 276 // तेनाथ दर्शितं चारोः शङ्खकाचाक्षपूरितम् / स्वबोहित्थं तदुद्वीक्ष्य चारुश्चित्ते व्यचिन्तयत् // 277 // अहो ! मूढोऽयमुन्मत्तः कौतुकास्तमानसः / वञ्चितो धूर्तलोकेन शिक्षयामि तथाप्यमुम् // 278 // इति ध्यात्वा स तं प्राह न युक्तं तव कौतुकम् / इदं हि रत्नवाणिज्यबाधकं निजवचनम् / // 279 // अरत्नानि गृहीतानि रत्नबुया परित्यज / इमानि धूर्तदत्ताति सुरत्नानि गृहाण च // 280 // इदं च लक्षणं तेषां सम्यक् चित्तेऽवधारय / इति यावत् कथयति चारुस्तावत् क्रुधा ज्वलन् // 281 // मूढो जगौ व्रज त्वं भो ! नागमिष्याम्यहं पुनः / वचसाऽनेन भवतः स्फुटीभूता वयस्यता // 282 // ममैकं मुत्कलाचारं यन्निराकुरुते भवान् / द्वितीयं दूषयस्युच्चैर्मामकं रत्नसञ्चयम् // 283 // यद्येतानि न रत्नानि भास्वगणि भवन्ति मे / तदा श्रद्धाधिकै रत्नैः पर्याप्तं तावकैः परैः // 284 // ततश्चारुः पुनर्वस्तुकामस्तेन निराकृतः / तमशक्यप्रतीकारं मत्वा मौनमलम्बत // 285 // स्वाश्रवत्वार्जितार्थाभ्यां मूढं त्यक्त्वाऽथ शुद्धधीः / साधं योग्य-हितज्ञाभ्यां चारुः स्थानं निजं ययौ // 286 // प्रापुस्त्रयं सुखं तत्र ते रत्नविनियोगतः / भाजनं भूरिदुःखानां मूढस्तु समजायत // 287 //

Page Navigation
1 ... 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316