Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 237
________________ // सप्तमः सर्गः॥ अथास्ति नाम्ना साहादं पुरं शक्रपुरोपमम् / सदानन्दं सदोद्योतं महारत्नमयैऍहैः // 1 // तत्रोल्लासितभूर्मित्रमयूरानन्दकारकः / नाम्मा च परिणामेन जीमूतो नाम पार्थिवः // 2 // अस्ति तस्य महादेवी लीला लीलेव मूर्तिभृत् / तस्याः कुक्षावहं नीतो भवितव्यतया तया // 3 // पूर्णे काले प्रसूतोऽहं माता तोषमुपागता / तया तदैव जातोऽपि दृष्टः पुण्योदयस्तु न // 4 // सुतजन्म प्रियंकर्या जीमूताय निवेदितम् / दत्तं तेन महादानं कारितं बन्दिमोचनम् // 5 // उचिते समये तस्य महानन्दपुरःसरम् / घनवाहन इत्युच्चैर्नाम पित्रा प्रतिष्ठितम् // 6 // इतश्चास्ति लघुर्भ्राता जीमूतस्य महीपतेः / नीरदाख्यो महादेवी पद्माख्या तस्य विश्रुता // 7 // मजन्मावसरे साऽपि पूतं प्रासूत दारकम् / अकलङ्क इति स्पष्टं नाम तस्य प्रतिष्ठितम् // 8 // प्रवृद्धौ सुखसन्दोहैरहं च स च लालितौ / बाल्ये धूल्यादिना सार्द्ध क्रीडिताववियोगिनौ // 9 // मैत्री तेनाऽकलङ्केन कौमारेऽजनि मे सह / कदापि न पृथग भूतं तया स्यूतं मनो द्वयोः // 10 // अधीतवन्तावेकस्मादाचार्यात् सकलाः कलाः / प्राप्तौ क्रमेण तारुण्यमावां मदनकाननम् // 11 // स चाऽकलङ्को बाल्येऽपि कौमारेऽपि च यौवने / न निन्द्यचेष्टितैः स्पृष्टः केसरीव श्वलक्षणैः // 12 // शान्तो विनीतः पुण्यात्मा सत्यगीर्देवपूजकः / स्थिरस्तनुकषायश्च प्रकृत्या स्वच्छमानसः // 13 // सोऽज्ञातपरमार्थोऽपि तत्त्वज्ञानीव भासते / जात्यस्याघटितस्यापि रत्नस्य श्रीः रैव हि // 11 जातः सुसाधुसम्पर्काद् दक्षोऽथासौ जिनागमे / प्रज्ञापनीयः श्रद्धावान् शुद्धमार्गानुसारिधीः // 15 // सोऽकलङ्कस्तथाप्युच्चैः स्नेहं मयि न मुञ्चति / कृतस्मर-मधुनीडां क्रीडां सह मयाऽकरोत् // 16 // मयोद्यानेऽन्यदा नीतो लीलार्थ बुधनन्दने / ममोपरोधात् तत्रासौ चिक्रीड प्रहरद्वयम् // 17 // मध्याह्ने प्रस्थितोऽथाऽसौ गृहं प्रति मयोदितम् / क्षणं विश्रम्य यास्यावो वयस्यात्र वनान्तरे // 18 // अकलको वचः श्रुत्वा तन्मदीयमुदारधीः / उद्यानभागमध्यस्थमविशजिनमन्दिरम् // 19 // तत्रार्हन्तमभिष्ट्रय पुराणं पुरुषोत्तमम् / महामुनीन् ददर्शाऽसौ मया साधं विनिर्गतः // 20 // ते च तत्राष्टमी मत्वा समायाता उपोषिताः / नत्वाऽर्हन्तं बहिः सूत्रं गणयन्तः पृथक् पृथक् // 21 // निर्मलच्छवयो दीप्राः स्थिरा दूरे स्थिता मिथः / राना दीपा इव बहिपेन्दव इवाथवा // 22 // अकलङ्कस्ततः प्राह कुमार घनवाहन ! / पश्येमे मुनयः सूर्या इव तेजोविराजिताः // 23 // मन्मथा इव रूपेण गाम्भीर्यात् सागरा इव / स्थैर्येण मेरव इव श्रिया कल्पगुमा इव // 24 // 1. आनन्दपूर्णचित्तेन समयेऽथ ममोचिते / घन // 2. यमुभौ म // 3. स्नेहं मयि न तत्याज सोऽकलङ्कस्तथापि हि / कृत // 4. म् / तेन दृष्टा मथा साधं निर्गतेन सुसाधवः // 21 // ते .

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