Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti
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________________ महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचिता [ पञ्चमः सर्गः क्रोधकण्डूं रिपुतरुस्कन्धेष्वपनिनीषताम् / त्वदुपेक्षाङ्कुशोऽस्माकं द्विपानां प्रतिबन्धकः // 626 // द्विषद्भिरभिभूतानां निष्फलं देव ! नोऽधुना / छन्नस्यान्तर्बलत्तेजः कृशानोरिव भस्मना // 627 // प्रेक्ष्य तान् रणकण्डूलानेवं भूपान् स भूपतिः / गतो गुह्यसभा मन्त्रिमहत्तमसमन्वितः // 628 // गता तत्रापि सा सार्द्ध मया मार्गानुसारिता / पृष्टौ राज्ञोचितं तत्र ततो मन्त्रिमहत्तमौ // 629 / / महत्तमोऽवदत्तत्र सम्यग्दर्शननामकः / उक्तं त्यागादिधीरैर्यत् तक्रियैवाधुनोचिता // 630 // शत्रूणामपमानेन मानी तिष्ठति कोऽलसः / विनाऽपमानकृद्धवंसं मौनिनो न धृतिर्भवेत् // नाग्निः प्रज्वालयत्युच्चैराक्रामन्तं क्रमेण किम् // 631 // तस्याऽजननिरेवास्तु योऽरिदग्धोऽपि जीवति / स निन्द्यः सर्वलोकानां स लघुः पवनादपि // 632 // एकारिरपि वीर्याढ्यः समुत्थाय जिगीषति / अत्ययुक्तं तव स्थातुं यस्याऽनन्ताः किलारयः // 633 // तदरिध्वान्तसङ्घातं विनिर्धूयोदयी भव / राजार्केऽयभिधायासौ विरराम महत्तमः // 634 // चारित्रधर्मराजोऽथ पप्रच्छ सचिवाग्रिमम् / सद्बोधं किमिह न्याय्यं कर्तुं वैरिपराभवे ? // 635 // स प्राह देव ! नो युक्तमन्यथा प्रतिभाषितुम् / अस्मिन् महत्तमेनोच्चैर्ममाद्रेरिव भाषिते // 636 // तथापि त्वत्कृपानुन्नः किञ्चिदेनं प्रतिब्रुवे / इति विज्ञप्य राजानं स जगाद महत्तमम् // 637 // दक्षोऽसि स्वामिभक्तोऽसि धुर्यस्तेजस्विनामसि / वचो येनेदृशं प्रोक्तं गुरुणाऽपि हि दुर्वचम् // 638 // द्विषामभिभवः सत्यं दुःसहो मानिकेसरिन् ! / सत्यं मोहादयो वयाः सत्यं पूर्ण बलं च नः // 639 // प्रस्तावः केवलमिहापेक्षणीयो जिगीषता / प्रस्तावं फलदं प्राहुर्नीति-पौरुषयोर्बुधाः // 640 // स्थानं यानं तथा सन्धिविग्रहश्च परैः सह / संश्रयो द्वैधभावश्च षड् गुणाः परिकीर्तिताः // 641 / / उपायः कर्मसंरम्भे विभागो देश-कालयोः / पुरुषद्रव्यसम्पच्च प्रतिकारस्तथाऽऽपदाम् // 642 // पञ्चमी कार्यसिद्धिश्च स्मृतमित्यङ्गपञ्चकम् / साम-दान-भेद-दण्डा उपायाः परिकीर्तिताः // 643 // प्रभुत्वो-त्साह-मन्त्राख्याः प्रोक्तास्तिस्रश्च शक्तयः / मित्र-काश्चन-भूमीनां लाभाः सिद्धित्रयं ततः // 644 // आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्तथाऽपरा / विद्याश्चतस्रो भूपानां फलवत्यः स्वगोचरे // 645 // नीतिसारमिदं ज्ञेयं राज्ञो भावार्थसंयुतम् / विना भावं तु विज्ञानमन्धस्यादर्शसन्निभम् // 646 // भावानभिज्ञोऽसाध्येऽपि प्रवर्तत हि वस्तुनि / ततो हास्यो भवेल्लोके समूलश्च विनश्यति // 647 // इदं च सर्व युद्धस्य मूलनष्टं प्रयोजनम् / फलवांस्तावकोत्साहः कथं तत्र भविष्यति ? // 648 // वयं महारयस्ते च भवचक्रपुरं तथा / स कर्मपरिणामो राट् सा च चित्तमहाटवी // 649 // यस्यायत्तमिदं सर्वं भवजन्तोः स वेत्ति न / नामाप्यस्मादृशां किन्तु मोहादीन् बहु मन्यते // 650 // यत्राधिकः पक्षपातो बलेऽस्य विजयेत तत् / तत् तेनानादृतानां नो युज्यते गजमीलिका // 651 // प्रदीपा इव विद्वांसः सङ्कचन्ति प्रवृद्धये / तैलपूरमिव प्राप्य प्रस्तावनयविस्तरम् // 652 // नश्यतोऽपि न दक्षस्य न्यूनं भवति पौरुषम् / प्रतिमेषं भृशं हन्तुं मेषोपसरति स्फुटम् // 653 // १°ध्वंसं न स्यात् तेजस्विनः सुखम् // 631 // तस्या / / 2. मेषो ह्यपसरत्येव प्रतिमेषजिघांसयां ॥६५॥मह
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