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तीर्थंकर की अवधारणा : २७
लोक के हितकर्ता, दीपक के समान लोक को प्रकाशित करने वाले कहे गये हैं।
२. तीर्थंकर शब्द का अर्थ और इतिहास
धर्मं प्रवर्तक के लिए जैन परम्परा में सामान्यतया अरहंत, जिन तीर्थंकर - इन शब्दों का प्रयोग होता रहा है । जैन परम्परा में तीर्थंकर शब्द कब अस्तित्व में आया यह कहना तो कठिन है, किन्तु निःसन्देह यह ऐतिहासिक काल में प्रचलित था । बौद्ध साहित्य में अनेक स्थानों पर "तीर्थंकर" शब्द प्रयुक्त हुआ है, दीघनिकाय के सामञ्ञफलसुत्त में छः अन्य तीर्थंकरों का उल्लेख मिलता है ।" जैनागमों में उत्तराध्ययन, आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध, स्थानांग, समवायांग और भगवती में तीर्थंकर शब्द का प्रयोग हुआ है ।
संस्कृत में तीर्थ शब्द घाट या नदी के तीर का सूचक है। वस्तुतः जो किनारे से लगाये वह तीर्थं है । धार्मिक जगत् में भवसागर से किनारे लगाने वाला या पार कराने वाला तीर्थ कहा जाता है । तीर्थं शब्द का एक अर्थ धर्मशासन है । इसी आधार पर संसार समुद्र से पार कराने वाले एवं धर्मंतीर्थ ( धर्मशासन ) की स्थापना करने वाले को तीर्थंकर कहते हैं |
भगवतीसूत्र एवं स्थानांग में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह धर्मों के पालन करने वाले साधकों के चार प्रकार बताये गए हैं पुरिसवर गंधहत्यीणं । लोगुत्तमाणं, लोगनाहाणं, लोग हियाणं, लोक-पईवाणं, लोगपज्जोयगरांणं । —कल्पसूत्र १६
१. पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंडरीयागं
२. दीघनिकाय, पृ० १७-१८ ( हिन्दी अनुवाद) में छः तीर्थंकरों का उल्लेख मिलता है - १. पूर्ण काश्यप, २. मंक्खलि गोशाल, ३. अजितकेश कम्बल, ४ प्रबुद्ध कात्यायन, ५. संजयबेलट्ठपुत्त, ६. निगण्ठ नातपुत्त ।
३. ( अ ) उत्तराध्ययन २३ / २,२३/४
(ब) आचारांग द्वितीयश्रुतस्कन्ध - १५ / ११, १५ / २६/६
(स) स्थानांग – ९ / १२ / १, १/२४९-५०, २/४३८-४४५ ३/५३५, ५/२३४;
(द) समवायांग - १/२; १९/५; २३ / ३ – ४; २५।१; ३४/४; ५४|१ (इ) भगवती - ९।१४५
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