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तीर्थंकर की अवधारणा : ९९
विशुद्धि होती है ।' आचार्य भद्रबाहु ने स्पष्टरूप से स्वीकार किया है कि नाम-स्मरण के द्वारा पापों का पुंज नष्ट हो जाता है । यद्यपि इसका कारण परमात्मा को कृपा न होकर व्यक्ति के दृष्टिकोण की विशुद्धि ही है ।
इस प्रकार जैनधर्म में भक्ति की अवधारणा का एकमात्र उद्देश्य आत्मस्वरूप का बोध या आत्म-साक्षात्कार करना है । आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि निर्वाणाभिभुख होने का सतत प्रयत्न ही भक्ति है। निर्वाण प्राप्त महापुरुषों के गुणों का जप या स्मरण करना व्यावहारिक भक्ति है, राग-द्वेष एवं विकल्पों को छोड़कर विशुद्ध आत्मतत्त्व से जुड़ जाना वास्तविक भक्ति है | नियमसार में कहा गया है कि सभी तीर्थङ्करों ने इसी भक्ति के द्वारा परम पद प्राप्त किया है । इस प्रकार जैनधर्म में भक्ति या स्तवन मूलतः आत्मभक्ति या आत्मस्तवन हो है ।
१३. श्रद्धा बनाम ज्ञान
जैनधर्म में श्रद्धा का अत्यधिक माहात्म्य है । कभी तो ऐसा भी प्रतीत होता है कि वह गीता के समान ही श्रद्धा को प्रथम स्थान पर और ज्ञान को द्वितीय स्थान पर रखता है अर्थात् यह मानता है कि श्रद्धा के सम्यक होने पर ज्ञान भी सम्यक् हो जाता है । फिर भी जेनधर्म में श्रद्धा ज्ञान से ऊपर अपना स्थान प्राप्त नहीं कर सको ।
जैनधर्म में भी चारित्र को अपेक्षा ज्ञान एवं दर्शन (श्रद्धा) को प्राथमिकता दी गई है, किन्तु दर्शन और ज्ञान की पूर्वापरता को लेकर जैनाचार्यों में काफी विवाद रहा है । कुछ आचार्य दर्शन को प्राथमिक मानते हैं तो कुछ ज्ञान को, कुछ दोनों को समानान्तर मानते हैं । यद्यपि ज्ञानमीमांसा के दृष्टिकोण से दर्शन की प्राथमिकता ही प्रबल ठहरती है । उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता । किन्तु यहाँ दर्शन अनुभूति के अर्थ में है । अनुभूति के अर्थ में दर्शन को ज्ञान की अपेक्षा प्राथमिकता दी गई है । यद्यपि दर्शन के श्रद्धापरक अर्थ के संदर्भ में भी उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में दर्शन को ज्ञान और चारित्र
१. चउव्वी सत्थ एणं दंसण विसोहिं जणयइ ॥ उत्तराध्ययन, २९ / १० ।
२. आवश्यकनियुक्ति, गा० १०७६ ।
३. नादंसणिस्स नाणं । उत्तराध्ययनसूत्र, २८ / ३०
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