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तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार की अवधारणा : तुलनात्मक अध्ययन : २७७
११. तीर्थंकर और अवतार का अन्तर
जैन साहित्य में उल्लिखित तीर्थङ्करों का आविर्भाव वैष्णव अवतारवाद से कुछ अर्थों में भिन्न है । वैष्णव अवतारवाद में विष्णु स्वयं भवतार धारण करते हैं । उनको यह पद किसी साधना के बल पर प्राप्त नहीं हुआ है, अपितु वे स्वयं ब्रह्म हैं, स्रष्टा, पालक एवं संहारक हैं । इसके विपरीत जैन परम्परा में तीर्थङ्कर पद साधना द्वारा प्राप्त होता है और कोई अन्य विभिन्न जन्मों में साधना के द्वारा इस पद को प्राप्त करता है । "परमात्मप्रकाश " के अनुसार प्रत्येक आत्मा तत्त्वतः परमात्मा है किन्तु कर्म-बन्धन के कारण उसका परमात्मा स्वरूप आवरित है । कर्मबन्धन से मुक्त होने से ही वह परमात्मा बन जाता है । " " प्रवचनसार" के अनुसार आत्मा में ईश्वर बनने की शक्ति होती है, जो कर्मक्षीण होने पर पूर्णता को प्राप्त होती है । २
तीर्थङ्कर के पूर्व जन्मों को देखने से उनके क्रमिक आध्यात्मिक विकास का भान होता है । जैसे तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ पूर्वजन्म में पहले श्री शर्मा नामक राजपुत्र थे, द्वितीय जन्म में साधना के फलस्वरूप श्रीधर नामक देवता बने और तृतीय जन्म में तपस्या के फलस्वरूप अजितसेन नामक चक्रवर्ती हुए । इस प्रकार अन्य तीर्थङ्करों ने भी अपनी विभिन्न जन्मों में साधना के बल पर तीर्थङ्करत्व प्राप्त किया है। इस आधार पर इनकी उत्क्रमणशील प्रकृति के दर्शन होते हैं । तीर्थंकरत्व मूलरूप में साधना के द्वारा साधक के विकास का सूचक है ।
१२. बुद्ध और अवतार
बौद्ध धर्म में बुद्ध का वही स्थान है जो हिन्दू धर्मं में अवतार और बौद्ध धर्म में अनेक बुद्धों की कल्पना ठीक प्रकार हिन्दू धर्म में अनेक अवतारों की की
जैनधर्म में तोर्थङ्कर का है उसी प्रकार की गई है जिस
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गई है। हिन्दू धर्म के अवतारवाद के समान ही बौद्ध धर्म यह मानता है
लिए समय-समय पर बुद्धों
कि जन-साधारण को धर्म का उपदेश देने के का आविर्भाव होता रहा है। फिर भी जैसा तीर्थङ्कर एवं अवतार की तुलना करते समय देखा है कि दोनों इस बात में एक मत होते हुए भी कालक्रम में तीर्थङ्कर और अवतार होते रहते हैं, इस बात में यह भेद रखते हैं, जहाँ अवतार एक ही ईश्वर का अनेक बार अनेक रूपों में
१. परमात्मप्रकाश, पृ० १०२
२. प्रवचनसार मू० ९२-९३
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