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अवतार की अवधारणा : १८३
वेदों से प्रारम्भ होकर ब्राह्मणों, आरण्यकों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत एवं पुराणों में विष्णु की महत्ता एवं लोक ख्याति उसी प्रकार वृद्धिगत होती रही है, जिस प्रकार गंगा का जल समुद्र तक पहुँचते-पहुँचते वृद्धि को ही प्राप्त होता रहता है । ब्रह्मा का महत्व वैदिक साहित्य में प्रजापति के रूप में सुविख्यात था किन्तु कालान्तर में वह ह्रास को प्राप्त हो गया । वैदिक साहित्य में रुद्र विशेष ख्याति प्राप्त देवता नहीं रहे, किन्तु विष्णु लोक - कल्याणकारी देवता के रूप में विशेष ख्याति को प्राप्त होते रहे हैं । विष्णु को लोक की विपत्ति में सहायक माना गया है । इसी विराट् भावना के कारण शैव पुराणों में भो विष्णु का महत्व स्वीकार किया गया है । प्रारम्भ में विष्णु इन्द्र तथा प्रजापति के समकक्ष देवता रहे, किन्तु कालान्तर में विष्णु का महत्व बढ़ जाने के कारण इन्द्र तथा प्रजापति भी उन्हीं में अंगीभूत हो गये ।
५. शिवपुराण के अनुसार विष्णु को उत्पत्ति
शिवमहापुराण के अनुसार विष्णु का आविर्भाव ( उत्पत्ति ) इस प्रकार है - कहा जाता कि महाप्रलय के समय चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार व्याप्त था, उस समय एकमात्र 'तत्सद् ब्रह्म' ही शेष था । कुछ कालोपरान्त उसके मन में एक से दो होने की इच्छा जागृत हुई' और उस निराकार परमात्मा ने लीला शक्ति से अपने लिए एक मूर्ति या आकार की कल्पना की । वह मूर्ति सर्वगुणसम्पन्न, सर्वज्ञ एवं शुभस्वरूपा थी । इसी को सदाशिव या परमात्म-शिव कहा गया है । कहा जाता है कि उस समय एकाकी एवं स्वेच्छा विहार करने वाले परमात्माशिव ने अपने विग्रह से स्वयं ही एक स्वरूपभूता शक्ति की सृष्टि की और पुनः उस शक्ति के साथ सदाशिव या परमात्म- शिव ने "शिवलोक" का निर्माण किया जो कि 'काशी' के नाम से विख्यात है । इस अथवा मोक्ष का धाम कहा गया है साथ ही इसको
काशी को निर्वाण सबके ऊपर विराज
१. "क्रियता चैव कालेन द्वितीयेच्छाऽभवत् किस ।"
२. अमृर्तेन स्वमूर्तिश्च तेनाकल्पि स्वलीलया । सर्वेश्वर्यगुणोपेता सर्वज्ञानमयी शुभा ॥
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-- शिवपुराण २/२/६/१४
- शिवपुराण, २/२/६/१५
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