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२४४ : तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
जैसे कि कठपुतली की गतिविधियां उसके चालक द्वारा संचालित होती रामचरितमानस में अनेक स्थानों पर इस प्रकार से नियतिवाद के दर्शन होते हैं । उसमें कहा गया है कि।
उमा दारु योषित की नाई, सबहि नचावत राम गोसाई ।
अथवा
होई हैं वही जो राम रचि राखा, को कर तरक बड़ावहि साखा । अवतारवादी दर्शन में कभी-कभी तो यह नियतिवाद का पक्ष इतना प्रबल हो जाता है कि स्वयं अवतारवाद भी नियति का एक घटनाक्रम बन जाता है तथा सर्वसमर्थ परमतत्व भी उन्हीं स्थितियों से गुजरता है जिनसे एक सामान्य मानव को गुजरना होता है । अवतारवादी विचारकों ने राम कृष्ण आदि के जीवन की अनेक घटनाओं का तर्कसंगत समाधान अन्ततः नियति को अवधारणा में खोजने का प्रयास किया है ।
अवतारवाद के दर्शन में पुरुषार्थ का तत्त्व कम होकर नियति को प्रधानता इसलिए भी हो जाती है कि मनुष्य किसी ऐसे उद्धारक में विश्वास करने लगता है जो करुणाशील होकर उसे दुःख, पीड़ा और अत्याचार से मुक्त करावेगा । अवतारवादी दर्शन मनुष्य को ईश्वर का आश्रित बनाता है और उसे पूर्णतया ईश्वर के प्रति समर्पित होने की बात कहता है । आश्रितता और समर्पण को इस भावना में पुरुषार्थ का तत्व प्रधान नहीं बन पाता । यद्यपि गीता में हमें आत्मा द्वारा आत्मा के उद्धार का संकेत मिलता है किन्तु उससे आगे बढ़कर गीता में स्वयं कृष्ण यह कहते हैं कि
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि युक्त्वेवमात्मानं मत्परायणः || १
तब हम पुरुषार्थ की प्रधानता नहीं देखते । अवतारवाद का दर्शन केवल हमें इतना ही सिखाता है कि हमें ईश्वरीय इच्छा का एक यन्त्र बनकर कार्य करना है ।
पुनः अवतारवाद को अवधारणा में ज्ञान, भक्ति और कर्म में भक्ति ही प्रधान स्थान को प्राप्त करती है। यदि ज्ञान और कर्म के महत्त्व को स्वीकार भी करें, फिर भी हमें इतना तो मानना होगा कि उसमें भक्ति १. गीता, ९ / ३४
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