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२४२ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
वर्तमान युग में अनैतिक एवं भौतिक कामनाओं की पूर्ति के लिए व्यक्तिगत एवं सामूहिक प्रयत्न हो रहे हैं। इन स्वार्थों के पीछे आणविक युद्ध के बीज छिपे हैं और मानव जाति का संहार अवश्यम्भावी प्रतीत होता है। सम्भव है कि युद्ध के समाप्ति पर कल्कि का अवतार संस्कृति एवं सभ्यता में नयी प्रवृत्तियों की चेतना का उदय करे। इस प्रकार विभिन्न अवतार युग परिवर्तन की विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक हैं । यदि हम अवतारों की अवधारणा को जैविक विकास के आधार पर स्पष्ट करना चाहें तो हमें उसके पूर्व सष्टि के विकास की प्रक्रिया को किसो सीमा तक समझना होगा। क्योंकि सृष्टि विकास की इस प्रक्रिया में भौतिक एवं वानस्पतिक विकास के पश्चात् हो जेविक और आध्यात्मिक विकास का क्रम आता है। १९, अवतारवाद का दर्शन
अवतारवाद की अवधारणा की तात्विक पूर्व मान्यता ( Postulate ) यह है कि परमसत् चेतन है, क्योंकि एक चेतन सत्ता ही विश्व के प्राणियों के प्रति करुणाशील होकर उनके उद्धार के लिए प्रयत्नशील हो सकती है । साथ ही उस परमसत्ता का “परिणामी" होना आवश्यक है क्योंकि यदि परमतत्त्व चैतन्य होते हुए भी निर्विकार और कूटस्थ होगा तो भी 'अवतार की अवधारणा' सम्भव नहीं है। क्योंकि ऐसी अपरिणामो शुद्ध चेतन सत्ता का शरीर धारण करना सम्भव नहीं है। शरीर धारण करना और विश्व के प्राणियों के सुख-दुःख से प्रभावित होकर उनके प्रति करुणाशील होना किसी परिणामी चेतन सत्ता के तात्विक अवधारणा में ही युक्तिसंगत हो सकता है। निर्विकार चेतन तत्त्व करुणा, संकल्प या इच्छा से भी रहित होता है और बिना इच्छा के उसका अवतरण और शरीर धारण सम्भव नहीं होगा । अतः अवतारवाद की अवधारणा का यह अनिवार्य फलित है कि परमतत्त्व-परम कारुणिक चेतन एवं परिणामी है। यही कारण है कि अवतारवाद को धारणा रामानुज, वल्लभ, मध्व आदि के दर्शनों में ही युक्तिसंगत सिद्ध है। शंकर के अनुसार परमसत्ता चैतन्य तो है किन्तु वह निर्विकार है अतः उसमें अवतरण जो कि स्वतः ही एक परिवर्तन है सम्भव नहीं होता । शंकर के निरपेक्ष अद्वैतवादी दार्शनिक चौखटे में अवतारवाद की अवधारणा को सुसंगत बनाने के लिए अवतार को माया से युक्त मात्र व्यावहारिक सत्ता मानना होगा । अवतारवाद की अवधारणा के लिए यह भी आवश्यक है कि परमतत्त्व या ईश्वर सगुण एवं साकार भी है। यही कारण था कि परवर्ती निर्गुणधारा के सन्तो ने अवतारवाद की समा
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