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२५२ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन होता है।' अतः "तू मेरे में मन लगा और मेरे में ही बुद्धि को लगा, इसके उपरान्त तू मेरे में ही निवास करेगा अर्थात् मेरे को ही प्राप्त होगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है ।"२ मेरा आश्रय लेने वाला पुरुष सारे कर्मों को करता हआ भी मेरे अनुग्रह से शाश्वत पद को प्राप्त होता है। हे अर्जुन, तुम सब धर्मों अर्थात् वर्णाश्रम धर्मों को त्यागकर सिर्फ मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हें सारे पापों से मुक्त कर दूंगा, तुम सोच मत करो। यहाँ हमें भक्ति की प्रधानता स्पष्टरूप से दृष्टिगत होती है । २४. अवतारवाद के सन्दर्भ में नियति और पुरुषार्थ
दार्शनिक दृष्टि से अवतारवाद की अवधारणा के साथ नियति और पुरुषार्थ का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है। अवतारवाद में सामान्यतया ईश्वर को विश्व का संचालक और नियामक मान लिया जाता है। जब ईश्वर विश्व का नियामक और संचालक है साथ ही सर्वशक्तिमान भी है तो फिर स्वाभाविक रूप से विश्व के सारे क्रिया-कलाप उसी की इच्छा या लोला के परिणाम हैं। गीता में श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हे अर्जुन, ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में स्थित होकर सभी प्राणियों को उसी प्रकार भ्रमण कराता है जिस प्रकार यन्त्र पर आरूढ़ कठपुतली भ्रमण करती है, इसी बात को तुलसीकृत रामचरितमानस में निम्न शब्दों में कहा गया है___ उमा दारु जोषित को नाई । सबहि नचावत रामु गोसाई ।
हम उपयुक्त सिद्धान्त को स्वीकार करके यह मान लेते हैं कि समग्र विश्व ईश्वरीय इच्छा से संचालित है तो हमें अनिवार्य रूप से इस बात को भी स्वीकार करना होगा कि व्यक्ति को कोई स्वतन्त्रता नहीं है ।
१. गीता, ११/५५ २. "मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत उध्वं न संशयः ।।" वही ३. "सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्वयपाश्रयः । __मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ।।"-गीता, १८/५६ ४. “सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।"-वहो, १८/६६ “५. “ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥"-वही, १८/६१
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