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तीर्थकर, बुद्ध और अवतार को अवधारणा : तुलनात्मक अध्ययन : २६९ प्रक्षालन कर सकता है। दोनों परम्पराओं में उसे उपास्य मानते हुए भी और उसके नाम में पाप प्रक्षालन की सत्ता को स्वीकार करते हुए भी मूलभूत दृष्टि से अन्तर है। हिन्दू परम्परा में अवतार एक सक्रिय व्यक्ति है, वह खुले दिल से अपने भक्त को आश्वासन देता है कि तू मेरे प्रति समर्पित हो जा । मैं तेरे सम्पूर्ण पापों से मुक्ति दिला दूंगा। जबकि जेनपरम्परा में तीर्थकर एक निष्क्रिय व्यक्ति है। वह अपनी ओर से कोई आश्वासन नहीं देता, वह तो स्पष्ट रूप से कहता है कि कृत कर्मों के फल भोग के बिना मुक्ति नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने शुभाशुभ कर्मों का लेखा-जोखा स्वयं ही पूरा करना है। चाहे तीर्थंकर के नाम रूपी अग्नि से पापों का प्रक्षालन होता हो किन्तु तीर्थंकर में ऐसी कोई शक्ति नहीं है कि वह अपने भक्त को पीड़ाओं से उबार सके, उसके दुःख कम कर सके, उसको पापों से मुक्ति दिला सके। जबकि हिन्दु परम्परा में उन्हें उपास्य के रूप में तो स्वीकार करती है, किन्तु जैनधर्म का तीर्थकर उस अर्थ में अपने भक्त का त्राता नहीं है, जिस अर्थ में हिन्दू धर्म का अवतार है।
आचार्य समन्तभद्र ने बहुत स्पष्ट रूप में इस बात को स्वीकार किया था कि हम तेरी स्तुति इसलिए नहीं करते कि उस स्तुति के करने या नहीं करने से तू कोई हित या अहित करेगा । वे कहते हैं
"न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ विवान्तवेरे । सथापि ते पुण्य गुण-स्मृतिन!
पुनातु चेतो दुरितांजनेभ्यः ।।' अर्थात् तेरो प्रशंसा करने से भी कोई लाभ नहीं क्योंकि तू वीतराग है। अतः स्तुति करने पर प्रसन्न नहीं होगा। तेरी निन्दा करने में भी कोई भय नहीं है क्योंकि तू तो विवान्तवेरे है। अतः निन्दा करने पर नाराज नहीं होगा । फिर हम तेरी स्तुति किस लिये करें। कवि कहता है कि तेरे पुण्य गुणों का एक ही लाभ है कि उन गुणों के स्मरण के द्वारा हमारा चित्त दुर्गुणों से पवित्र हो जाता है। इस तथ्य को और स्पष्ट करते हुए श्रीमद् देवचन्द्र ने कहा है
१. स्वयम्भूस्तोत्र
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