________________
२५० : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन तथ्य को और स्पष्ट करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिस प्रकार कर्म में आसक्त हुए संसारो, अज्ञानी जन जैसे कर्म करते हैं उसी प्रकार विद्वान् को भी लोक कल्याण के लिए अनासक्तभाव से कर्म करना चाहिए।' गीता स्पष्टरूप से इस बात का भो प्रतिदिन करतो है कि लोककल्याण के लिए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह लोगों को कर्म से विमुख न करे अपितु उन्हें योग्य विधि से कर्म करने हेतु प्रेरित करे । इस प्रकार सामान्य रूप से समग्र हिन्दु धर्म का विशेष रूप से गीता का यह संकेत है कि लोक मंगल के लिए कर्म करना ईश्वर का और ज्ञानी जनों का अनिवार्य कर्तव्य है । यद्यपि व्यक्ति लोकमंगल के लिए कर्म नहीं करता है तो वह लोक का विनाश करने वाला माना जाता है। ईश्वर भी लोकमंगल के लिए समय-समय पर अवतार लेकर लोक के हित का साधन करते हैं। उसके भी मूलभूत दो उद्देश्य हैं प्रथम तो लोक का कल्याण करना और दूसरा ससार के मम्मुख एक आदर्श स्थापित करना जिससे लोग लोककल्याण से विमुख न बनें। श्रीकृष्ण का यह कहना कि यदि लोकमंगल के लिए कार्य न करूं तो लोक का विनाश करने वाला बनूं, बहुत ही महत्वपूर्ण संकेत देता है । वह एक ओर स्वयं लोकमंगल को साधता है तो दूसरी ओर अपने जीवन में लोगों के सामने एक ऐसा आदर्श उपस्थित कर देता है जिससे अन्य जनों के लिए भी लोकमंगल की प्रेरणा मिले।
२३. अवतारवाद में भक्तितत्त्व या श्रद्धा का प्राधान्य
गीता में श्रद्धा या भक्ति को प्रथम स्थान दिया गया है। गीताकार का कथन है कि श्रद्धावान ही ज्ञान प्राप्त करता है अथवा ज्ञान का अधिकारी है। यद्यपि ज्ञान की महिमा का विशद् विवरण गीता में १. "सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ।।"-गीता, ३/२५ २. "न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् । ___जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ।।"-वही, ३/२६ ३. “कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ॥"-वही ३/२० ४. "तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोग तं येन मामुपयान्ति ते ॥"-वही, १०/१०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org