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२२८ : तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
विष्णु को हंस नाम से अभिहित कर हंसावतार की कल्पना असम्भाव्य नहीं जान पड़ती।
२४. हयग्रीव अवतार
दशावतारों में विष्णु के हयग्रीवावतार का उल्लेख नहीं मिलता, परन्तु आगे चलकर २४ अवतारों की अवधारणा में हयग्रीव का नामोल्लेख प्राप्त होता है । यद्यपि विष्णुपुराण में मत्स्य, वराह, कूर्म के साथ हयग्रीव का वर्णन है ।
पौराणिक हयग्रीव वैदिक साहित्य में उल्लिखित हयग्रीव का विकसित रूप प्रतीत होता है । ऋग्वेद और अथर्ववेद में 'हर्यश्व' शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में हुआ है ।" अश्वमेध का वैदिक यज्ञों में प्रमुख स्थान रहा है । 'वृहदारण्यक उपनिषद्' में यज्ञ की अश्वरूपात्मक कल्पना स्पष्ट दिखाई देती है जहाँ अश्व की हिनहिनाहट को वाणी से अभिहित किया गया है । साथ ही हय से देवताओं, बाजो होकर गन्धर्वों, अर्वा होकर असुरों एवं अश्वरूप से मनुष्यों को वहन करने का प्रसंग मिलता है । समुद्र को हयग्रीव का बन्धु एवं उद्गम स्थान कहा गया है। अतः समुद्र से हयग्रीवावतार के बीज लक्षित होते हैं । महाभारत आदिपर्व में गरुड़ की स्तुति करते समय उन्हें प्रजापति, शिव, विष्णु एवं हयमुख कहा गया है । एक अन्य स्थल पर स्वयं भगवान् कहते हैं 'स्वर और वर्णों का उच्चारण' एवं वरदान देने वाले हयग्रीव मेरा ही अवतार हैं और उसी वेदों की रक्षा की । ५ वेदों के उद्धार का
अवतार रूप में मैंने मधु-कैटभ असुरों को मार कर महाभारत में नारायण द्वारा हयशिर रूप धारण कर उल्लेख मिलता है ।
उपर्युक्त उद्धरणों में हयग्रीव का सम्बन्ध यज्ञ, प्रजापति एवं वेदोच्चारण से स्पष्टतया परिलक्षित होता है और सम्भव है कि इन्हीं उपदानों
१. ऋग्वेद ७/३१/१ : ८/२१/१०
अथर्ववेद २०/१४/४ : २०/६२/४
२. वृहदारण्यक उपनिषद् १ / २ / १ : उद्धृत - म० स०अ०, पृ० ४५२ ३. वही १ / २ / २ : उद्धृत वही, पृ० ४५२ ४. महाभारत आदिपर्व २३/१६ ५. वही, शान्तिपर्व ३४२/९६-१०२ ६. वही, शान्तिपर्व ३४७/१९-७१
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