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१२० : तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
इससे स्पष्ट होता है कि बुद्ध विशिष्ट यद्यपि उसके महापदान किन्तु ये लक्षण मात्र उन्हें अलौकिक नहीं
ज्ञान सम्पन्न तथा भगवान् थे । प्रतिभा सम्पन्न श्रेष्ठ मानव एवं धर्म प्रवर्तक थे । सुत्त में बुद्ध को ३२ लक्षणों से युक्त कहा गया है उनके शरीर की विशिष्टताओं के ही परिचायक हैं, बनाते हैं । इस ग्रन्थ में बुद्ध की अलौकिकता की चर्चा मात्र उनकी गर्भावक्रान्ति एवं जन्म को लेकर ही है। इस प्रकार यहाँ बुद्ध को एक मरणशील व्यक्ति से अधिक नहीं माना गया । बुद्ध ने मृत्यु से पूर्व आनन्द से कहा है कि मैंने धर्म एवं विनय का जो उपदेश दिया है मृत्यु के बाद वही तुम्हारा मार्ग दर्शक होगा ।
पुनः मज्झिमनिकाय एवं संयुत्तनिकाय में भगवान् बुद्ध अपने को उसी प्रकार धर्म का पुत्र कहते हैं जिस प्रकार ब्राह्मण अपने को ब्रह्मा का पुत्र कहते हैं । किन्तु इसके साथ ही वे अपने को प्राणियों के दुःखों को दूर करने वाला अवश्य मानते हैं । संयुत्तनिकाय में वे कहते हैं कि जो जीव मुझे कल्याण मित्र को शरण में आ जाते हैं वह जन्म के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं । इस प्रकार वे दुःखों से त्राण देने वाले और लोकउद्धारक हैं ।
बुद्ध एक ओर लोक उद्धारक बने तो दूसरी ओर धर्म-पुत्र कहे जाने लगे । धर्म की श्रेष्ठता स्वीकार करते हुए बुद्ध का धर्म के साथ तादात्म्य
१. " भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्भसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा" ।
-दीघनिकाय, भाग १, अम्बट्ठसुत्त (३।७।२६), पृ० ८७ । २. "यो, वो, आनन्द, मया धम्मो च विनयो च देसितो पञ्ञत्तो, सो वो ममच्चयेन सत्था" ।
- दीघनिकाय भाग २, महापरिनिब्बानसुत्त ( ३।२३।७१), पृ० ११८ । ३. " ब्रह्ममनो पुत्ता ओरसा मुखतो जाता ब्रह्मजा ब्रह्मनिम्मिता ब्रह्मदायादा ।” - मज्झिमनिकाय भाग २, ३४११), पृ० ३१० । तुलनीय - "भगवतो पुत्तो ओरसो मुखतो जातो धम्मजो धम्मनिम्मतो धम्मदायादो ।'
- मज्झिमनिकाय भाग ३ (११२५), पृ० ९२ । - संयुत्तनिकाय भाग २ ( १६।११।११), पृ० १८५ ।
४. मज्झिमनिकाय २६ । ५ २०, पृ० २२ ।
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