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चतुर्थ अध्याय अवतार की अवधारणा
१. अवतार शब्द की व्याख्या
प्राचीनकाल से ही भारतीय साहित्य में अवतार शब्द का प्रयोग होता रहा है । “अवतार' शब्द अव + तृ + घर से बना है
"अवे तृस्त्रोघञ्" इस सूत्र से निष्पन्न अवतार शब्द का अर्थ होता है कि किसी उच्च स्थल से नीचे उतरना अर्थात् किसी दैवीय शक्ति का दिव्य लोक से भूतल पर उतरना । सामान्यतया "अवतार" शब्द का प्रयोग सामान्य व्यक्ति के जन्म लेने के अर्थ में न होकर ईश्वर के शरीर धारण करने के अर्थ में ही किया जाता है। __ भारतीय साहित्य के प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद में 'अवतार' शब्द के स्थान पर अवतृ से बनने वाले 'अवतारी' और 'अवत्तर' शब्दों का प्रयोग है। सायण के अनुसार ऋग्वेद में प्रयक्त "अवतारी" शब्द का अर्थ संकट दूर करना है। उसमें कहा गया है कि हे इन्द्र ! तुम हमारो स्तुतियों से, शत्र सेनाओं को नष्ट करने वाली हमारी सेना की रक्षा करते हुए संग्राम में विद्यमान शत्रु के कोप को नष्ट करो। यज्ञादि कार्य करने वाले यजमान के लिए तुम उनके कार्यों को विनष्ट करने वाली सम्पूर्ण प्रजाओं को स्तुतियों द्वारा विनष्ट करो ।' अवतारी के अनन्तर 'अवतृ" से बनने वाला 'अवत्त' शब्द अथर्ववेद में मिलता है। सायण ने कहा है कि जिसमें रक्षण का सारभूत अंश विद्यमान हो वही "अवत्तर" है । “अवत" शब्द पुनः यजुर्वेद में उतरने के
१. "आभिः स्पृधो मिथतीररिषण्यन्न मित्रस्य व्यथया मन्युमिन्द्र आभिविश्वा अभियुजो विषूचीरार्यायऽविशो वतारी सीः ।"
-ऋग्वेद, ६/३/२५/२ २, "उपद्यामुप वेतसमवत्तरो नदीनाम् । अग्रे पित्तमपामसि ।।" ।
- अथर्ववेद, १८/३/५
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