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१४० : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
और पाप को प्रबल माना गया है। इसी कारण मानव पापों में फस जाता है । हाँ केवल भगवान् बुद्ध ही जब करुणाशील हो एक घड़ी के लिए लोगों को शुभ कर्मों की ओर प्रेरित करते हैं तभी बोधिचित्त का उत्पाद होता है । जिस प्रकार बादलों से घिरे आकाश मंडल में कुछ भी दृश्य नहीं होता, परन्तु ज्योंही क्षणमात्र के लिए विद्युत प्रकाशयान होती है तो उससे हमें वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है । उसी प्रकार इस अन्धकारयुक्त जगत् में केवल बुद्ध की प्रेरणा से ही मनुष्य शुभ कर्मों की ओर प्रेरित होता है।" मानव मन में इसी शुभ प्रवृत्ति के उदय को हम बोधिचित्त उत्पाद कहते हैं । यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि फिर बोधिचित्त किसे कहते हैं ? मानव मन में दूसरों के उद्धार के लिए जो भाव उठते हैं वही बोधिचित्त है । जब चित्त को समाहित कर अपने को सम्यक् सम्बोधि में
कर लेता है तो उस स्थिति को बोधिचित्त कहते हैं । इसी बोधिचित्त th कारुणिक भाव के द्वारा वह बुद्धत्व को प्राप्त होता है । इसी बोधिचित्त के उदय से वह मानव बुद्ध-पुत्र कहलाने लगता है । बोधिचित्त वह रस है जिसके रसास्वादन से वह बुद्धत्व एवं बुद्ध के कारुणिक स्वरूप को प्राप्त कर लेता है । इसी बोधिचित्त के कारण वह अपने पूर्व संचित पापों को ज्ञान के प्रकाश से उसी प्रकार नष्ट कर देता है जिस प्रकार प्रकाश की एक किरण गुफा के युगों के अन्धकार को दूर कर देती है । इसे उस वृक्ष के समान माना गया है जो सदा फलते रहने पर भी कभी क्षीण नहीं होता है । ३
१. रात्रौ यथा मेघघनांधकारे विद्युत् क्षणं दर्शयति प्रकाशं । बुद्धानुभावेन तथा कदाचित् लोकस्य पुण्येषु मतिः क्षणं स्यात् ॥
पापस्य महत्सुघोरं । यदि नाम न स्यात् ॥
-- बोधिचर्यावतार, १ / ५-६ २. अशुचि प्रतिमामिमां गृहीत्वा जिनरत्नप्रतिमां करोत्यनर्घा । रसजातमतीव वेधनीयं सुदृढ गृह्णत बोधिचित्तसंज्ञं ॥
तस्माच्छुभं दुर्बलमेव नित्यं बलं तु तज्जीयते न्येन शुभेन केन संबोधिचित्तं
- वही, १/१० ३. कदलीव फलं विहाय याति क्षयमन्यत् कुशलं हि सर्वमेव सततं फलति क्षयं न याति प्रसवत्येव तु बोधिचित्त वृक्षः ।
वही, १/१२
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