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बुद्धत्व की अवधारणा : ११३ ५. बुद्धत्व को अवधारणा : हीनयान से महायान को यात्रा
बुद्धत्व की अवधारणा का चरम विकास हमें महायान परम्परा में दिखाई देता है। बौद्ध धर्म के लोकोपकारी विकसित रूप को महायान कहते हैं; किन्तु इसके मूल बीज प्रारंभिक बौद्ध धर्म में भी उपलब्ध हैं। महायान का ऐसा कोई सिद्धान्त नहीं है जिसके मूल बीज को प्रारंभिक बौद्ध धर्म में खोजा न जा सके । उदाहरणार्थ माध्यमिकों का शून्यवाद प्रारंभिक बौद्ध धर्म के अनित्य, दुःख और अनात्म का ही विकपित तात्त्विक रूप है। महायान में विश्व के कल्याण को जो कल्पना विशेष रूप से दृष्टिगत होती है वह भगवान् बुद्ध के प्रथम उपदेश में निहित है
"चरथ भिक्खवे चारिकं बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं ।"१
महायान में करुणा की भावना ने जो चरम विकास प्राप्त किया. वह भी प्रारम्भिक बौद्ध धर्म के चार ब्रह्म विहारों-मैत्री, करुणा, प्रमोद एवं माध्यस्थ का ही विकसित रूप है। महायान दर्शन का केन्द्र बिन्दु बोधिसत्व की अवधारणा है, वह भी पालि निकाय में यत्र-तत्र पाई जाती है। पालि निकाय के कई सूत्रों में बुद्ध के ये वाक्य मिलते हैं"बुद्ध होने के पूर्व मैं बोधिसत्व हो था ।" बोधिसत्व का अर्थ होता है बोधि के लिए प्रयत्नशील प्राणी। भगवान् अपने पूर्व जन्मों में, जब वे बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए साधना कर रहे थे, बोधिसत्व हो थे। जातकों में जो बुद्ध के पूर्व जन्मों की अनेक कहानियाँ उपलब्ध हैं वास्तव में वे बोधिसत्व की ही कहानियाँ हैं। इस प्रकार पालि साहित्य में बोधिसत्व की अवधारणा भी स्पष्ट रूप से उपलब्ध है, फिर भी इतना तो मानना ही होगा कि महायान में इसे एक निश्चित एवं व्यवस्थित सिद्धान्त के रूप में विकसित किया गया है। बोधिसत्व के रूप में बुद्ध के परम कारुणिक स्वरूप का विकास निश्चय ही महायान की देन है।
बुद्धत्व की अवधारणा की हीनयान से महायान की ओर जो यात्रा हुई वह विभिन्न चरणों में सम्पन्न हुई है उसमें संक्रमण कालीन बौद्ध सम्प्रदाय सर्वास्तिवाद और महासांघिकों का भी अपना योगदान है । अतः
१. (अ) महावग्ग (१।१०।३२), पृ० २३
(ब) दीघनिकाय भाग २, महापदानसुत्त (१।६।६५),पृ० ३७ । २. बौद्ध धर्म और अन्य भारतीय दर्शन, पृ० ६०४ (भरतसिंह उपाध्याय)
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