________________
७६ : तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
उनसे अपने प्राणों की रक्षा के लिए प्रार्थना करता है । जैसे ही राजा ने उसे अभयदान दिया, उसी समय एक बाज उपस्थित होता है और राजा से प्रार्थना करता है कि कपोत मेरा भोज्य है, इसे छोड़ देवें, क्योंकि मैं बहुत भूखा हूँ ।
राजा उस बाज से कहते हैं कि उदर पूर्ति के लिए हिंसा करना घोर पाप है, अतः तुम्हें इस पाप से विरत रहना चाहिए । शरणागत की रक्षा करना मेरा धर्म है, अतः तुम्हें भी इस पाप से दूर रहना चाहिए, किन्तु बाज पर इस उपदेश का कोई असर न हुआ । अन्त में बाज कबूतर के बराबर मांस मिलने पर कबूतर को छोड़ देने पर राज़ी हो गया । राजा मेघरथ ने तराजू के एक पलड़े में कबूतर को और दूसरे पलड़े में अपने शरीर से मांस के टुकड़ों को रखना शुरू कर दिया । परन्तु कबूतर वाला पलड़ा भारी पड़ता रहा, अन्त में ज्यों ही राजा उस पलड़े में बैठने को तत्पर हुए उसी समय एक देव प्रकट हुआ और उनकी प्राणिरक्षा की वृत्ति की प्रशंसा की । कबूतर एवं बाज अदृश्य हो गए । राजा पहले की तरह - स्वस्थ हो गए ।
इसी तरह की कथा महाभारत के वनपर्व में राजा शिवि की उल्लिखित है । राजा शिवि अपने दिव्य- सिंहासन पर बैठे हुए थे, एक कबूतर उनकी गोद में गिरता है और अपने प्राणों की रक्षा के लिए प्रार्थना करता है— महाराज, बाज मेरा पीछा कर रहा है, मैं आपकी शरण में आया हूँ । इतने में बाज भी उपस्थित हो जाता है और कहता है कि महाराज, कपोत मेरा भोज्य है, इसे आप मुझे दे दें । राजा ने कपोत देने से मना कर दिया और बदले में अपना मांस देना स्वीकार किया । तराजू के एक पलड़े में कपोत और दूसरे में राजा शिवि अपने दायीं जांघ से मांस काट-काटकर रखने लगे, फिर भी कपोत वाला पलड़ा भारी हो पड़ता रहा । अतः स्वयं राजा तराजू के पलड़े पर चढ़ गए। ऐसा करने पर तनिक भी उन्हें क्लेश नहीं हुआ । यह देखकर बाज बोल उठा - ' हो गयी कबूतर की रक्षा', और वह अन्तर्धान हो गया ।
अब राजा शिवि ने कबूतर से पूछा कि वह बाज कौन था, तो कबूतर कहा कि वह बाज साक्षात् इन्द्र थे और मैं अग्नि हूँ । राजन् ! हम दोनों आपकी साधुता देखने के लिए यहाँ आये थे ।
इन दोनों ही कथाओं का जब तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते हैं तो दिखायी देता है कि दोनों में हो जीव हिंसा को पाप बताया गया है और अहिंसा के पालन पर जोर दिया गया है । यद्यपि इन दोनों कथाओं में कथा
।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org