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तीर्थंकर की अवधारणा : ७५.
स्वर्णिम बताया गया है ।' इन्होंने जीवन की सान्ध्य वेला में कठिन तपस्या कर दधिपर्ण वृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त किया । इन्होंने एक लाख पूर्व वर्ष की आयु पूर्ण कर निर्वाण प्राप्त किया । जैन ग्रन्थों के अनुसार इनके संघ में ६४ हजार साधु एवं ६२ हजार ४ सौ साध्वियाँ थीं । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इनके दो पूर्व भवों - दृढरथ राजा और अहमिन्द्रदेव का वर्णन उपलब्ध है |
अन्य परम्पराओं में इनका कोई उल्लेख नहीं मिलता है । १६. शान्ति
जैन परम्परा में शान्तिनाथ को सोलहवाँ तीर्थंकर माना गया है । इनके पिता का नाम विश्वसेन एवं माता का नाम अचिरा और जन्मस्थान हस्तिनापुर माना गया है । " इनके शरीर की ऊँचाई ४० धनुष और वर्ण स्वर्णिम कहा गया है । इन्होंने एक वर्ष को कठिन तपस्या के बाद नन्दी वृक्ष के नीचे बोधिज्ञान या केवलज्ञान प्राप्त किया । अपनी एक लाख वर्ष की आयु पूर्ण करने के पश्चात् इन्होंने सम्मेतशिखर पर निर्वाण प्राप्त किया ।' इनकी शिष्य सम्पदा में ६२ हजार भिक्षु और ६१ हजार ६ सौ भिक्षुणियाँ थी, ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है ।" त्रिषष्टिशलाका पुरुष - चरित्र में इनके दो पूर्व भवों - मेघरथ राजा और सर्वार्थसिद्धि विमान में देव बनने का उल्लेख हुआ है ।
यद्यपि शान्तिनाथ का उल्लेख बौद्ध एवं वैदिक परम्पराओं में नहीं मिलता है, किन्तु " मेघरथ" के रूप में इनके पूर्वभव की कथा हिन्दू पुराणों में महाराजा शिवि के रूप में मिलती है ।
भगवान् शान्ति अपने पूर्वभव में राजा मेघरथ थे । उस समय जब वे ध्यान चिन्तन में लीन थे, एक भयातुर कपोत उनको गोद में गिरकर
१. वही, ४५, आ० नि० ३७७, ३७९ ।
२. वही, १५७ ।
३. आ० नि०, २५६ ।
४. समवायांग, गा० १५७ उत्तराध्ययन १८ । ३३, वि० भा० १७५९ ।
५. वही, १५८, आ० नि० ३८३, ३९८, ३९९ ॥
६. वही, ४०, आ० नि० ३७७, ३९२, ३७९ । ७. वही, १५७ ।
८. कल्पसूत्र, आ नि० २७२ - ३०४, ३०७, ३०९ ॥
९. समवायांग, गा० १५७, आ० नि० २५८, २६०, २६२ ॥
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