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तीर्थंकर की अवधारणा : ८७
मतभेद रहा किन्तु आगे चलकर पार्श्वनाथ की परम्परा महावीर की परम्परा में विलीन हो गई। पार्श्व का अवदान
भारतीय संस्कृति में श्रमण धारा का आवश्यक घटक तप एवं त्याग को माना गया है और यही इसकी प्रतिष्ठा का कारण रहा है । पाश्वनाथ इसी श्रमण परम्परा के प्रतिपादक हैं । भारतीय संस्कृति को पार्श्व के अवदान की चर्चा करते हुए डॉ० सागरमल जैन लिखते हैं कि यद्यपि श्रमणों ने वैदिकों के हिंसक यज्ञ-यज्ञों का विरोध किया ही साथ ही उनके कमं. काण्डीय प्रथा का भी बहिष्कार किया था। फिर भी श्रमण धारा में कर्मकाण्ड प्रविष्ट कर ही गया था, क्योंकि उनके तप और त्याग विवेक प्रधान न रहकर रूढ़िवादी कर्म-काण्डीय प्रथा के अनुरूप बन गए थे। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि पार्श्वनाथ के युग में श्रमण धारान्र्तगत तप और त्याग के साथ कर्म-काण्ड पूरी तरह जुड़ गया था और तप देहदण्डन और बाह्याडम्बर मात्र रह गया। कठोरतम देहदण्डन द्वारा लोक में प्रतिष्ठा पाना श्रमणों और संन्यासियों का एकमात्र उद्देश्य बन गया था। सम्भवतः उपनिषदों को ज्ञानमार्गी धारा अभी पूर्णतया विकसित नहीं हो पायी थी, तदर्थ पार्श्वनाथ ने देहदण्डन और कर्मकाण्ड दोनों का विरोध किया । कमठ तापस के देहदण्डन की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि तुम्हारी इस साधना में आध्यात्मिक आनन्दानुभूति कहाँ है ? इसमें न तो स्वहित ही है और न परहित अथवा लोकहित ही । एक ओर तो तुम स्वयं अग्नि द्वारा अपने शरीर को झलसा रहे हो तो दूसरी ओर अनेक छोटे-बड़े जीव-जन्तुओं को भी जला रहे हो, मात्र यही नहीं इस लक्कड़ के टुकड़े में नाग-युगल भी जल रहा है। उनकी इस बात की पुष्टि हेतु लक्कड़ को चीरकर नाग-युगल के प्राणों की रक्षा की गई। इससे यह बोध होता है कि पार्श्व के अनुसार वह साधना जो आत्म-पीड़न और परपीड़न से जुड़ी हो सच्चे अर्थों में साधना नहीं कही जा सकती। साधना में ज्ञान और विवेक का होना आवश्यक है। देह-दण्डन जिसमें ज्ञान और विवेक के तत्त्व नहीं हैं आत्म-पीड़न से अधिक कुछ नहीं है। देह को पीड़ा देना साधना नहीं है। साधना से तो मनोविकारों में निर्मलता आती है एवं आत्मा में सहज आनन्द की अनुभूति होती है। पार्श्वनाथ की यह शिक्षा, हो सकता है कि कमठ जैसे तापसों को अच्छी नहीं लगी हो, किन्तु इसमें एक सत्य निहित है। धर्म साधना को न तो आत्मपीड़न के साथ
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