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२८ : तोथंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
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- श्रमण, श्रमणी श्रावक और श्राविका । इन चतुविध संघ को भी तीर्थं कहा जाता है तथा इस चतुर्विध संघ के संस्थापक को तीर्थंकर कहते हैं ।' वैसे जैन साहित्य में तीर्थंकर का पर्यायवाची प्राचीन शब्द "अरहंत " ( अर्हत् ) है । प्राचीनतम जैनागम आचारांग में इसी शब्द का प्रयोग हुआ है।
विशेषावश्यकभाष्य में तीर्थं की व्याख्या करते हुए बतलाया गया है कि "जिसके द्वारा पार हुआ जाता है, उसको तीर्थ कहते हैं ।" इस आधार पर जिन - प्रवचन को तथा ज्ञान और चारित्र से सम्पन्न संघ को भी तीर्थ कहा गया है । पुनः तीर्थ के ४ विभाग किये गये हैं
१. नाम तीर्थ
२. स्थापना तीर्थ
३. द्रव्य तीर्थ
४. भाव तीर्थ ।
तीर्थ नाम से सम्बोधित किये जाने वाले स्थान आदि नाम तीर्थ कहे जाते हैं। जिन स्थानों पर भव्य आत्माओं का जन्म, मुक्ति आदि होती है और उनकी स्मृति में मन्दिर, प्रतिमा आदि स्थापित किये जाते हैं वे स्थापना तीर्थ कहलाते हैं । जल में डूबते हुए व्यक्ति को पार कराने वाले, मनुष्य की पिपासा को शान्त करने वाले और मनुष्य शरीर के मल को दूर करने वाले द्रव्य तीर्थ कहलाते हैं, जिनके द्वारा मनुष्य के क्रोध आदि मानसिक विकार दूर होते हैं तथा व्यक्ति भवसागर से पार होता है, वह निर्ग्रन्थ प्रवचन भावतीर्थ कहा जाता है । भावतीर्थ पूर्व संचित कर्मों को दूर कर तप, संयम आदि के द्वारा आत्मा की शुद्धि करने वाला होता है । तीर्थंकरों के द्वारा स्थापित चतुविध संघ भी संसाररूपी समुद्र से पार कराने वाला होने से भावतीर्थ कहा जाता है । इस भावतीर्थ के संस्थापक ही तीर्थंकर कहे जाते हैं ।
तीर्थंकर शब्द का उल्लेख स्थानांग, समवायांग, भगवती, ज्ञाताधर्मं
१. "तिथ्यं पुण चाउवन्ने समणसंधे
समणीओ,
समणा,
सावया
सावियाओ ।"
— भगवतीसूत्र, शतक २० उ० ८ सूत्र ७४
“तित्थंति पुव्वभणियं संघो जो नाणचरणसंघाओ । इह पवयणं पि तित्थं तत्तोऽणत्यंतरं
जेण ॥
- विशेषावश्यकभाष्य, । १३८०
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