________________
३० : तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन इसकी परिवर्तिता निश्चित रूप से सिद्ध होती है। नन्दी में समवायांग की विषयवस्तु की चर्चा में प्रकीर्णक समवाय का उल्लेख ही नहीं है। सम्भवतः आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध को रचनाकाल तक न तो तीर्थंकरों की २४ की संख्या निश्चित हुई और न यह निश्चित हुआ था कि ये तीर्थंकर कौन-कौन हैं। स्थानांग में ऋषभ, पार्श्व और वर्धमान के अतिरिक्त वारिषेण का उल्लेख हुआ है किन्तु वर्तमान में २४ तीर्थंकरों की अवधारणा में वारिसेन का उल्लेख नहीं मिलता है। सम्भावना है कि आगे वारिषेण के स्थान पर अरिष्टनेमि को समाहित किया गया होगा । क्योंकि मथुरा में जो मूर्तियाँ मिली हैं, उनमें ऋषभ, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर का उल्लेख है। पार्व और महावीर की ऐतिहासिकता तो सुनिश्चित ही है। अरिष्टनेमि और ऋषभ की ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में भी कुछ आधार मिल सकते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में अरिष्टनेमि को भगवान, लोकनाथ और दमीश्वर को उपाधि दी गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा के साहित्य में जिन आगमिक ग्रन्थों को द्वितीय स्तर का माना गया है, उनमें ही तीर्थंकर की अवधारणा का विकसित रूप देखा जाता है। साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक आधारों से ज्ञात होता है कि ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी में २४ तीर्थंकरों की अवधारणा सुनिश्चित हो गई थी। ३. तीर्थंकर की अवधारणा
पूर्वकाल में तीर्थंकर का जीव भी हमारी तरह ही क्रोध, मान, माया, लोभ, इन्द्रिय-सुख आदि जागतिक प्रलोभनों में फंसा हुआ था । पूर्व जन्मों में महापुरुषों के सत्संग से उसके ज्ञान-नेत्र खुलते हैं वह साधना के क्षेत्र में प्रगति करता है और तीर्थंकर नाम-कर्म का उपार्जन कर तीर्थंकर बनने की योग्यता प्राप्त कर लेता है । अन्तिम जीवन (भव) में स्वयं सत्य का अनावरण कर केवलज्ञान प्राप्त करता है। जैन धर्म में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कोई भी भव्य जीव तप और साधना के द्वारा तीर्थंकर
१. स्थानांग ४।३३९ २. भगवं अरिट्ठनेमि ति लोगनाहे दमीसरे ।
-उत्तराध्ययन २२।४ ३. 'इमेहि य' णं वीसाए णं कारणेहिं आसेविय-बहुलीकएहि तित्थयरनामगोयं कम्मं निव्वत्तिंसु, तं जहा-।
-ज्ञाताधर्मकथा ८।१८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org