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तीर्थंकर की अवधारणा : ६३
जोड़ने का प्रयत्न किया गया है, समुचित तो प्रतीत होता है, साथ ही यह भी सूचित करता है कि ऋग्वैदिक काल में ऋषभ की परम्परा प्रचलित थी।
ऋग्वेद में 'शिश्नदेवा' शब्द आया है। "शिश्नदेव' के ऋग्वेद में दो उल्लेख हैं-प्रथम (७।२१।५) में तो कहा गया है कि वे हमारे यज्ञ में विघ्न न डालें और दूसरे (१०।९९।३) में इन्द्र द्वारा शिश्नदेवों को मारकर शतद्वारों वाले दुर्ग की निधि पर कब्जा करने का उल्लेख है। इससे यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि शिश्नदेव (नग्न देव) के पूजक वैदिक परम्परा के विरोधी और आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न थे। शिश्नदेवा के दो अर्थ हो सकते हैं । इसका एक अर्थ है शिश्न को देवता मानने वाले, दूसरा शिश्न युक्त अर्थात् नग्न देवता को पूजने वाले। इन दोनों अर्थों में से यदि किसी भी अर्थ को ग्रहण करें, किन्तु इससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि ऋग्वेद के काल में एक परम्परा थी जो नग्न देवताओं की पूजा करती थी और यह भी सत्य है ऋषभ की परम्परा नग्न श्रमणों की परम्परा थी।
ऋग्वेद में केशो की स्तुति किये जाने का उल्लेख मिलता है। यह केशी साधनायुक्त कहे गए हैं और अग्नि, जल, पृथ्वो और स्वर्ग को धारण करते हैं। साथ ही सम्पूर्ण विश्व के तत्त्वों का दर्शन करते हैं और उनकी ज्ञानज्योति मात्र ज्ञानरूप ही है।' ऋग्वेद में एक अन्य स्थल पर केशी
और ऋषभ का एक साथ वर्णन हुआ है। श्रीमद्भागवत में ऋषभदेव के केशधारी अवधूत के रूप में परिभ्रमण करने का उल्लेख मिलता है । जेनमूर्तिकला में भी ऋषभदेव के वक्रकेशों की परम्परा अत्यन्त प्राचीनकाल से पायी जाती है। तीर्थंकरों में मात्र ऋषभदेव की मूर्ति के सिर पर हो कुटिल (वक्र) केश देखने को मिलते हैं, जो कि उनका एक लक्षण माना जाता है। पद्मपुराण एवं हरिवंशपुराण' में भी उनकी लम्बी जटाओं के उल्लेख पाए जाते हैं। अतः उपरोक्त साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि ऋषभदेव का ही दूसरा नाम "केशो" रहा होगा।
१. ऋग्वेद १०११३६।१। २. ऋग्वेद १०।१०२।६। ३. श्रीमद्भागवत ५।५।२८-३१ । ४. पद्मपुराण, ३।२८८ । ५. हरिवंशपुराण, ९।२०४ ।
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