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तीर्थंकर की अवधारणा : ४५
८. तीथंङ्कर - निर्दोष व्यक्तित्व
४ - भोगान्तराय,
जैन परम्परा में तीर्थङ्कर को निम्न १८ दोषों से रहित माना गया है' – १ – दानान्तराय, २ - लाभान्तराय, ३ - वीर्यान्तराय, ५ - उपभोगान्तराय, ६ - मिथ्यात्व, ७- अज्ञान, ८-अविरति १० - हास्य, ११ - रति, १२ - अरति, १३ - शोक, १४ - भय, 16 - राग, १७ - द्वेष और १८ - निद्रा ।
९ - कामेच्छा,
श्वेताम्बर परम्परा में प्रकारान्तर से उन्हें निम्न १८ दोषों से भी रहित कहा गया है । 2
१. हिंसा, २. मृषावाद, ३. चोरी, ४. कामक्रीड़ा, ५. हास्य, ६. रति, ७. अरति, ८. शोक, ९. भय, १०. क्रोध, ११. मांन, १२. माया, १३. लोभ, १४. मंद, १५. मत्सर, १६ अज्ञान, १७. निद्रा और १८. प्रेम ।
दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ नियमसार में तीर्थंकर को निम्न १८ दोषों से रहित कहा गया है।
१. क्षुधा, २. तृषा, ३. भय, ४. रोष (क्रोध), ५. राग, ६. मोह, ७. चिन्ता, ८. जरा, ९. रोग १०. मृत्यु, ११. स्वेद, १२. खेद, १३. मद, १४. रति, १५. विस्मय, १६. निद्रा, १७. जन्म, १८. उद्वेग ( अरति) |
श्वेताम्बर और दिगम्बर पराम्पराओं में तीर्थंकरों को जिन दोषों से रहित माना गया है उसमें मूलभूत अन्तर यह है कि जहाँ दिगम्बर परम्परा तीर्थंकर में क्षुधा और तृषा का अभाव मानती है वहाँ श्वेताम्बर परम्परा तीर्थंकर में इनका अभाव नहीं मानती है । क्योंकि श्वेताम्बर परम्परा में केवली का कवलाहार ( भोजन ग्रहण ) माना गया है जबकि
१. पंचेव अंतराया, मिच्छत्तमनाणमविरई कामो । हासछग रागदोसा, निद्दाट्ठारस इमे दोसा ॥। १९२ ॥
१५ - जुगुप्सा,
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२. " हिंसाऽऽइतिगं कीला, हासाऽऽइपंचगं च चउकसाया । मयमच्छर अन्नाणा, निद्दा पिम्मं इअ व दोसा ।। १९३ ।।
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- राजेन्द्र अभिधानकोश, पृ० २२४८
३. "छुहतण्हभीरुरोसो रागो, मोहो चिताजरा रुजामिच्चू । स्वेदं खेदं मदो रइ विहियाणिद्दा जणुव्वेगो ।”
- राजेन्द्र अभिधानकोश, पृ० २२४८
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- नियमसार, ६
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