________________
६० : तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
जिस प्रकार बौद्धों में सुखावतीव्यूह में सदैव बुद्धों की उपस्थिति मानी गई है उसी प्रकार जैनों ने महाविदेह क्षेत्र में सदैव बीस तीर्थंकरों की उपस्थिति मानी है। यद्यपि इनमें से प्रत्येक तीर्थंकर अपनी आयु मर्यादा पूर्ण होने पर सिद्ध हो जाता है अर्थात् निर्वाण को प्राप्त कर लेता है किन्तु जिस समय वह निर्वाण प्राप्त करता है, उसी समय उसी नाम का दूसरा तीर्थंकर कैवल्य प्राप्तकर तीर्थंकर पद प्राप्त कर लेता है, इस प्रकार क्रम सदा चलता रहता है। महाविदेह क्षेत्र के बीस तीर्थंकर निम्न हैं।'
१. सोमन्ध र, २. युगमन्धर, ३. बाहु, ४. सुबाहु, ५. संजात, ६. स्वयंप्रभ, ७. ऋषभानन, ८. अनन्तवीर्य, ९. सूरिप्रभ, १०. विशालप्रभ, ११. वज्रधर, १२. चन्द्रानन, १३. चन्द्रबाहु, १४. भुजंगम, १५. ईश्वर, १६. नेमिप्रभु, १७. वीरसेन, १८. महाभद्र, १९. देवयश, २०. अजितवीर्य ।
जैनों की कल्पना है कि समस्त मनुष्यलोक (अढाई द्वीप) के विभिन्न क्षेत्रों में एक साथ अधिकतम १७० और न्यूनतम २० तीर्थकर सदैव वर्तमान रहते हैं । इस न्यूनतम और अधिकतम संख्या का अतिक्रमण नहीं होता, फिर भी एक तीर्थंकर का दूसरे तीर्थंकर से कभी मिलाप नहीं होता। १. ऋषभदेव ___ऋषभदेव वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर माने जाते हैं । इनके पिता नाभि और इनकी माता मरुदेवी थीं। ये इक्ष्वाकु कुल के काश्यप गोत्र में उत्पन्न हुए थे। इनका जन्मस्थान कोशल जनपद के अयोध्या नगर में माना जाता है। इनकी दो पत्नियाँ थीं-सुनन्दा और सुमंगला। भरत, बाहुबलि आदि उनके १०० पुत्र और ब्राह्मी-सुन्दरी दो पुत्रियाँ थीं। __ऋषभदेव उस काल में उत्पन्न हुए थे, जब मनुष्य प्राकृतिक जीवन से निकल कर ग्रामीण एवं नगरीय जीवन में प्रवेश कर रहा था। माना जाता है कि ऋषभदेव ने पुरुष को ७२ और स्त्रियों को ६४ कलाओं की १. जयसेनप्रतिष्ठापाठ, ५४५-६४ । २. “वीसं वि सयले खेत्ते सत्तरिसयं वरदो।"-त्रिलोकसार-६८१ । ३. कल्पसूत्र, २१० । ४. वही, २०५-८१; आवश्यकनियुक्ति १७०, ३८५, ३८७; समवायांग १५७ । ५. कल्पसूत्रवृत्ति २३६, २३१ (विनय-विजय); आवश्यकचूर्णि भाग १,
पृ० १५२-३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org