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तीर्थकर की अवधारणा : २९
कथा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र में उपलब्ध होता है, किन्तु कालक्रम की दृष्टि से ये सभी आगम परवर्ती माने गये हैं। प्राचीन स्तर के आगमों में आचारांग I, सूत्रकृतांग I, उत्तराध्ययन, दशवकालिक और ऋषिभाषित आते हैं किन्तु इन आगम ग्रन्थों में केवल उत्तराध्ययन में ही 'तित्थयर' शब्द मिलता है। अन्य किसी भी प्राचीन स्तर के ग्रन्थ में यह शब्द उपलब्ध नहीं है। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन में अरहन्त शब्द का प्रयोग ही अधिक हुआ है। तीर्थंकर की अवधारणा का विकास मुख्य रूप से अरहन्त को अवधारणा से हुआ है। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में भूतकाल और भविष्यकाल के अर्हन्तों की अवधारणा मिलती है । किन्तु इससे यह स्पष्ट नहीं होता है कि भूतकाल में कौन अर्हन्त हो चुके हैं और वर्तमान में कौन अर्हन्त हैं और भविष्यकाल के कौन अर्हन्त होंगे। फिर भी इस उल्लेख से ऐसा लगता है कि उस युग में यह विचार दृढ़ हो गया था कि भूतकाल में कुछ अहंत् हो चुके हैं, वर्तमान में कुछ अर्हत् हैं और भविष्यकाल में कुछ अर्हत् होंगे । सम्भवतः यही वर्तमान, भूत और भावी तीर्थंकरों की अवधारणा के विकास का आधार रहा होगा। सूत्रकृतांग में भी हमें 'अरह' शब्द मिलता है। तीर्थंकर शब्द नहीं मिलता। प्राचोन ग्रंथों में सबसे पहले हमें उत्तराध्ययन में 'तित्थयर' शब्द मिलता है। इसके २३ वें अध्याय में अर्हत् पार्श्व
और भगवान् वर्धमान को धर्म तीर्थंकर (धम्म"तित्थयरे') यह विशेषण दिया गया है। उत्तराध्ययन के इसी २३ वें अध्याय की २६वीं एवं २७वीं गाथा में कहा गया है कि पहले (तीर्थंकर) के साधु ऋजु जड़ अर्थात् सरल चित्त और मूर्ख (जड़) होते हैं और अन्तिम (तोर्थकर) के वक्र जड़ होते हैं जबकि मध्यम के ऋजु और प्राज्ञ होते हैं । इस गाथा से ऐसा लगता है कि उत्तराध्ययन के २३वें अध्याय के रचना काल तक तीर्थंकर की अवधारणा बन चुकी होगी। इस गाथा से इतना अवश्य फलित होता है कि उस युग तक महावीर को अन्तिम तथा पार्श्व को उनका पूर्ववर्ती तीर्थकर
और ऋषभ को प्रथम तीर्थंकर माना जाने लगा होगा। वैसे तीर्थंकर की विकसित अवधारणा हमें मात्र समवायांग और भगवती में हो मिलती है। समवायांग में भी यह सारी चर्चा उसके अन्त में जोड़ो गई है। इससे .
१. आचारांग १।४।११ २. पुरिमा उज्जुजडा उ, वंकजडा या पच्छिमा ।
मज्झिमा उज्जपन्ना य, तेण धम्मे दुहा कए ॥
-उत्तराध्ययन २३।२६
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