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विषय प्रवेश : १३ भी मानते हैं कि जिस प्रकार जैनधर्म में तीर्थंकर की अवधारणा का एक कालक्रम में विकास हुआ है, उसी प्रकार बौद्धधर्म में बुद्धों की अवधारणा
और हिन्दू धर्म में अवतारों की अवधारणा का कालक्रम में विकास हुआ है। ८. बौद्धधर्म और बुद्ध ___ जैनधर्म के समान हो बौद्धधर्म भो श्रमण परम्परा का एक निवृत्तिमार्गी धर्म है । सामान्यतया इस धर्म के संस्थापक के रूप में गौतम बुद्ध को माना जाता है । गौतम बुद्ध जैनधर्म के अन्तिम तीर्थंकर महावीर के समकालोन हैं । गौतम बुद्ध ने भी संसार की दुःखमयता का अनुभव किया और कहा कि यह संसार दुःखमय है। संसार की दुःखमयता की अनुभूति हो बौद्ध धर्म का प्राण है। गौतम बुद्ध ने स्वयं जिन चार आर्यसत्यों का उपदेश दिया था, उनके मूल में दुःख की अवधारणा है । उनके ये चार आर्यसत्य निम्न हैं
१-दुःख। २-दुःख समुदय या दुःख का कारण । ३–दुःख निरोध । ४-दुःख निरोध का मार्ग ।'
यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि बुद्ध और महावीर दोनों संसार को दुःखमयता को चित्रित करते हैं, किन्तु वे दोनों निराशावादी नहीं हैं। दोनों यह मानते हैं कि संसार की इस दुःखमयता से व्यक्ति का उद्धार सम्भव है। दुःख और दुःख के कारणों को जानकर उनका उच्छेद कर देने पर दुःख का अन्त किया जा सकता है। बौद्ध धर्म में बद्ध का मुख्य लक्ष्य संसार के प्राणियों को दुःख से मुक्त कराना ही है। संसार के प्राणियों को दुःख से मुक्त करने के लिए हो वे धर्मचक्र का प्रवर्तन करते हैं तथा जन-जन के कल्याण के लिए न केवल स्वयं प्रयत्नशील होते
१. [अ] इदं दुक्खं ति खो, पोट्टपाद, मया ब्याकत'; अयं दुक्खसमुदयो ति खो
पोट्ठपाद, मया ब्याकतं; अयं दुक्खनिरोधो ति खो पोट्ठपाद, मया ब्याकतं; अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा ति खो, पोट्ठपाद, मया . ब्याकतं' ति ।
-दीघनिकाय, पोट्टपादसुत्त १.९.३, पृ० १५७ । [ब] बौद्धदर्शन और अन्य भारतीय दर्शन, उपाध्याय भरतसिंह, पृ०
१५६-५७
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