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विषय प्रवेश : ११ जेनधर्म का यह सामान्य विश्वास है कि प्रत्येक कालचक्र में और प्रत्येक क्षेत्र में एक निश्चित संख्या में क्रमशः तीर्थंकरों का आविर्भाव होता है और वे धर्ममार्ग का प्रवर्तन करते हैं । सामान्यतया यह भी माना जाता है कि प्रत्येक तीर्थंकर का धर्मोपदेश समान होता है; यद्यपि जैनाचार्यों ने प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के धर्मोपदेश और धर्मव्यवस्था में मध्य के २२ तीर्थंकरों की अपेक्षा कुछ अन्तर भी स्वीकार किया है । उनकी मान्यता है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर पंच महाव्रतों का उपदेश देते हैं, जबकि मध्य के २२ तीर्थकर चातुर्याम धर्म का उपदेश देते हैं। इसी प्रकार प्रथम
और अन्तिम तीर्थकर छेदोपस्थापनीय चारित्र और सप्रतिक्रमण धर्म का उपदेश करते हैं जबकि मध्यवर्ती तीर्थंकर केवल सामायिकचारित्र का उपदेश करते हैं।' यद्यपि इन अन्तरों के बावजूद भी सभी तीर्थंकरों के धर्मचक्र प्रवर्तन का मूलभूत उद्देश्य व्यक्ति को उसकी आध्यात्मिक पूर्णता को ओर ले जाना है। ७. जैनधर्म में तीर्थंकर की अवधारणा का ऐतिहासिक विकासक्रम
यद्यपि जैनधर्म में तीर्थंकर की यह अवधारणा पर्याप्त प्राचीन है, फिर भी प्राचीन जैन ग्रन्थों के अध्ययन से ऐसा लगता है कि इसका एक क्रमिक विकास हुआ है। आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध एवं सूत्रकृतांग जैसे जैनों के प्राचीनतम ग्रन्थों में हमें तीर्थंकर शब्द ही नहीं मिलता है। यद्यपि उसमें अरहन्त ( अर्हत् ) शब्द उपस्थित है। एक स्थान पर उसमें कहा गया है कि जो भूतकाल में अरहन्त हो चुके हैं, वर्तमान में अरहन्त हैं और भविष्य में अरहन्त होंगे, वे सभी यह उपदेश करते हैं कि किसी भी प्राणी, भूत, जीव या सत्व की हिंसा मत करो, उसे पीड़ा न पहुचाओ, यही
१. पढमस्स बारसंग सेसाणिक्कारसंग सुयलंभो।
पंच जमा पढमंतिमजिणाण सेसाण चत्तारि ॥ पच्चक्खाणमिणं संजमो अ पढमंतिमाण दुविगप्पो । सेसाणं सामइओ सत्तरसंगो अ सन्वेसि ।।
-आवश्यकनियुक्ति २३६-२३७ २. जे अईया जे य पडुप्पन्ना जे य आगमेस्सा अरहंता भगवतो ते सव्वे एवमाइ
खंति'. "सव्वे पाणा सव्वे भूता सवे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतन्वा-एस धम्मे सुद्ध णिइए सासए सामिच्च लोयं खेयण्णेहि पवेइए ॥
-आचारांग, १।४।१।१-२
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