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विषय प्रवेश :९
अवतार या पैगम्बर की अवधारणा को स्वीकार करना आवश्यक है, क्योंकि बिना किसी धर्मप्रवर्तक और धार्मिक जीवन के आदर्श को स्वीकार किए बिना कोई भी धर्म अपना अस्तित्व नहीं रख सकता। ६. जैनधर्म और तीर्थङ्कर की अवधारणा
जैनधर्म श्रमण परम्परा का धर्म है। यह निवृत्ति प्रधान है । इस धर्म में संसार को दुःखमय माना गया है । उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जन्म दुःख है, वृद्धावस्था दुःख है, रोगोत्पत्ति और मृत्यु भी दुःख है, अधिक क्या यह सम्पूर्ण संसार ही दुःख रूप है, जिसमें प्रत्येक प्राणी पीड़ित हो रहा है। संसार की दुःखमयता को स्वीकार करने के साथ-साथ जैनधर्म यह भी मानता है कि व्यक्ति अपनी साधना के बल पर इस दुःखमय संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। सांसारिक दुःखों और जन्म, जरा, मृत्यु के चक्र से छुटकारा पाना ही मुक्ति है किन्तु जैनधर्म में मुक्ति का केवल यह निषेधात्मक रूप ही मान्य नहीं है। जैनों ने मुक्ति को एक आध्यात्मिक पूर्णता के रूप में ही देखा है, यह आध्यात्मिक पूर्णता तब प्राप्त होती है जब आत्मा कर्मों के आवरण को समाप्त कर अपने अनन्तचतुष्टय अर्थात् अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तशक्ति और अनन्तसुख को प्राप्त कर लेता है। कर्मों के आवरण को नष्ट करने के लिए तथा आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त करने के लिए जैनधर्म में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र को मोक्ष मार्ग के रूप में स्वीकार किया गया है। जैनधर्म यह मानता है कि प्रत्येक भव्य आत्मा सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र की साधना के द्वारा आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर सकता है। दार्शनिक दृष्टि से जैनधर्म प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करता है तथा यह मानता है कि प्रत्येक जीवात्मा
१. "जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जन्तवो ॥"
-उत्तराध्ययनसूत्र १९।१६ २. विज्जदि केवलणाणं, केवलसोक्ल, च केवलं विरियं ।
केवलदिट्ठि अमुत्तं, अत्थित्त सप्पदेसत्तौं ।-नियमसार-१८१ ३. नाणं च दंसणं चेव, चरित्त च तवो तहा । __एयं मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छन्ति सोग्गई॥
-उत्तराध्ययनसूत्र २८।३
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