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दासियों ने देखा। उनसे यह सहन न हुआ। दासियों ने महारानी के पास आकर कहा- "आपके होने पर नयसार का जीव बाईसवे भय में मनुष्यरूप से उत्पन्न हुआ। वहाँ तपश्चर्या आदि करके. युवराज पदाधिकारी पुत्र विवाखानन्दी के लिये क्या कुछ आमोद-प्रमोद के साधन है? मौज-मजा उसके फलस्वरूप चक्रवर्तीपद और संयम दोनों की प्राप्ति होने के पुण्यादि कर्म बाईसवे भव में
और स्त्रियों के साथ रंगरेलियाँ तो उद्यान में विश्वभूति निरन्तर करता रहता है, जब कि सच्चा एकत्रित कर लिये थे, जिससे वह अनामी मनुष्य मृत्यु को प्राप्तकर तेईसवे भव में महाविदेह की हक तो आपको है।" इस कथन ने रानी के हृदय में इर्ष्याग्नि प्रज्वलित की। रानी राजा से रूठ मूकानगरी में चक्रवर्तीरूप से जन्म लिया। 'प्रियमित्र' ऐसा नाम रखा। चक्रवर्ती की रिद्धिसिद्धि गई। राजा के द्वारा बहुत समझाने पर भी न मानी, राजा अपनी कुलमर्यादा को तोड़ना नहीं भोगने के बाद संसार के ऊपर निवेदै जागृत होने पर पोट्टिलाचार्य के पास चारित्र ग्रहण किया। चाहता था। क्या करना चाहिए? इस उलझन में पड़ गये। अमात्य के साथ विमर्श करते हुए इस अन्त में कालपर्म-मृत्यु पाकर चौबीसवें भव में महाशुक्र कल्प में देवरूप से उत्पन्न हुए। आखिर उलझन का हल निकालने के लिये एक मूठा प्रपंच खड़ा किया। इसके परिणाम स्वरूप पड़ोसी बाईसर्वे भव में विराधक भाव का उपशम और आराधक भाव का जो उदय हुआ, वह उत्तरोत्तर राजा को हराने की खातिर पिता की आज्ञा लेकर पितृभक्त विश्वभूति को उद्यान क्रीडा समाप्त बढ़ता ही रहा। देवलोक का आयुष्य पूर्ण करके पच्चीसवें भव में भरतक्षेत्र में छत्रा नगरी में कर सैन्य के साथ लड़ाई में जाना पड़ा। दूसरी ओर जैसे ही उद्यान खाली हुआ कि तुरन्त ही क्षत्राणी रानी भदा की गोद में अवतार धारण किया- 'नन्दनकुमार' ऐसा नाम रखा गया। २४ विशाखानन्दी अपने अन्तःपुर के साथ आमोद-प्रमोद करने के लिये अन्दर प्रविष्ट हुआ, उधर लाख वर्ष का आयुष्य गृहस्थाश्रम में बिताकर एक लाख वर्ष का आयुष्य शेष रह गया, तब जाके वहाँ देखा तो युद्ध की बात गलत निकली। इसलिये विश्वभूति वापस लौटा और फिर उन्होंने पोट्टिलाचार्य नामके मुनि भगवन्त के पास दीक्षा ली। अब वे नन्दन राजर्षि हुए। दीक्षा उद्यान में प्रवेश करना चाहा। वहाँ द्वारपाल ने रोक कर कहा कि उद्यान में तो विशाखानन्दी दिवस से ही उन्होंने मासक्षमण के पारणे, फिर मासक्षमण, इस प्रकार जीवनपर्यंत तप किया। अपनी रानियों के साथ क्रीडा करने आये है। विश्वभूति चतुर था। शीघ्र ही वह समझ गया कि उनके जीवन में तीन गुणों का त्रिवेणी संगम होने पर वे महाज्ञानी, महासंयमी और महातपस्वी विशाखानदी को उद्यान में आना था, इसलिये बड़े लोगों ने यह मिथ्या प्रपंच खड़ा किया है। हुए। इन गुणों के प्रभाव से हृदय की भावना विशाल होती गयी। 'सवि जीव करूं शासन रसी' क्रोध के आवेश में पास में खड़े कैथ के वृक्ष पर जोर से मुष्टिप्रहार करके उसे ऐसा झकझोर अर्थात् सब को मुक्तिमार्ग का पथिक बनाने की उदात्त, व्यापक और महान भावना प्रगट हुई। दिया कि कैथ के गिरे हुए फलों से पृथ्वी बैंक गयी। उसने द्वारपाल से कहा कि यदि मुझ में चाहे जैसे आत्म बलिदान करने पर मुझे विश्व के प्राणी मात्र के कल्याण के लिये अमोघ शक्ति पितृभक्ति और कुलमर्यादा बनाये रखने का गुण न होता तो तुम सब के मस्तक कैब की तरह प्राप्त हो, तो कैसी भी उत्कृष्ट, कठिनतम महान् आराधना करने के लिये तैयार हूँ। इस प्रकार नीचे गिरा देता ! मै बड़ों के प्रति कितनी श्रद्धा और निःस्वार्थ भक्तिभावना रखता हूँ फिर भी वे की लोकोत्तर दया-भावना प्रज्वलित हुई। उसके साथ वह भावना सफल हो उसके लिये बाय लोग मेरे साथ इस प्रकार छलकपट करते है? इस प्रकार का अपना अपमान होने से उसे अत्यन्त ___ आभ्यन्तर दोनों रूप से तपस्वरूप 'विंशति स्थानक' नामक तप की आराधना करके तीर्थकर चोट लगी। उसने मन ही मन विचार किया कि सचमुच यह संसार स्वार्थी और छलकपट से भरा नामकर्म (ईश्वरपद प्राप्तिरूप कम) का उपार्जन किया। अपना आयुष्य पूर्ण होने के अवसर पर हुआ है। अन्त में बैरागी होकर संसार को तिलांजलि देकर आचार्य श्री आर्यसम्भूति स्थविर के विश्व के जीवों के साथ अत्यन्त सुन्दर ढंग से क्षमापना करके छब्बीसवें भव में देवलोक में पास दीक्षा ग्रहण की। विश्वभूति मुनि विविध तप की साधना में बढ़ते हुए मासक्षमण-एक एक उत्पन्न हुए।
[तृतीय चित्र का परिचय पूर्ण हुआ] महीने के उपवास करने तक पहुँच गये। - बादमें बिहार करते हुए मधुरा पहुँचे। एक समय वे मधुरा नगरी में ही भिक्षाटन के लिये चित्र-४: यों तो बीसस्थानक के बीस खाने विविध प्रकारसे चित्रित कर सकते है पर यहाँ मुझे निकले। उस समय विशाखानन्दी भी विवाह करने के लिये मथुरा आये हुए थे। वहाँ वे राजमार्ग
जो ठीक लगा उस आकारमें चित्रित करवाये गये है। बीसस्थानक में प्रथम अरिहत पद का के समीप उत्तरे थे। विशाखानन्दी के आदमियों ने घोर तप से अत्यन्त कृश हुए विश्वभूति को स्थान सर्वोपरि होनेसे सबसे ऊपर अष्टमहाप्रातिहार्योसे युक्त दिखाया है। अरिहत और दूर से ही पहचान लिया। बाद में विशास्त्रानन्दी ने भी पहचान लिया। विश्वभूति मुनि को देखते
परमात्मा एक ही अर्थ के बोधक है। अरिहंत है तो अन्य स्थान-साधनों का मूल्य है, अरिहंत ही उसे क्रोध आया। ऐसी स्थिति में विश्वभूति अचानक एक गौ की टक्कर लगने से जमीन पर
नहीं तो कुछ भी नहीं। एक के पीछे उन्नीस है। जैनशासन के केन्द्र में अरिहत है और गिर गये और पात्र फूट गये। (देखो चित्र विभाग-४) यह देखकर विशाखानन्दी आदि से न रहा तीर्थकर अरिहंत बनने के लिए ही इस बीसस्थानक की आराधना है। गया। सब ने हँसी करते हुए कहा कैथ के फल को गिराते समय का तुम्हारा वह बल कहाँ कमान आकार के छ: भाग करके उनमें बीस खाने बनाये है। इस चित्रमे पुरुषाकृतियोका गया? यह वचन सुनते ही विश्वभूति मुनि की विशाखानन्दी पर द्रष्टि गई। द्रष्टि गिरते ही बहुत्व होने के कारण ज्यादा बोझिल महसूस न हो तदर्थ दोनों ओर फूलबेलोका कलात्मक विश्वभूति मुनि अपने क्षमा धर्म से च्युत हुए, क्रोध की आग में लिपट गये, उसमें से मान की चित्रण किया जाय, इस दृष्टिकोण को ध्यान रखते हुए कमाने इस ढंगसे बनायी है कि स्थिति प्रकट हुई। अपने बल का प्रदर्शन करने के लिये उस करुणापात्र गाय के सीग पकड़कर दोनों ओर घोड़ी घोड़ी जगह खाली रहे। इसी प्रकार ऊपर के भागमे दोनों ओर देवियाँ और आकाश में उछालने का पाप किया। और उन्होंने वहीं मनोमन साधना का बदला माँगते हुए मन बादल आदि निदर्शित किये गये है। चारों ओर का यह कलात्मक सुन्दर चित्रण संपूर्ण चित्रको में विचारा कि- 'मेरे तप-संयम का जो कुछ भी फल हो तो भवान्तर में मुझे ऐसा कुछ बल भव्य बना रहा है। प्राप्त हो कि विशाखानन्दी को मै मार सकू।' यह मलिनधारा विश्वभूति के मन से एक करोड वर्ष
बीसस्थानक के बीस पदोंमें कोई कोई पद लगभग समान विषयवाले है। फिर कितनेक जीवित रहने तक न निकली और न तो उसका पश्चाताप हुआ! फिर आलोचना अथवा
पदोंकी तो योग्य आकृतियाँ बनाना भी सहज नहीं है तथापि परिश्रमपूर्वक यहाँ विशिष्ट प्रायश्चित्त करने की तो बात ही कहाँ रही? अन्त में वह मृत्यु प्राप्तकर सत्रहवे भव में महाशुक्र
आकृतियोका चित्रण किया गया है। १०० वर्ष पूर्व के चित्रोंमे बीशस्थानक की आकृतियाँ देवलोक में उत्पन्न हुए और वहाँ से अठारहवे पब में त्रिपृष्ठ वासुदेव के रूप में जन्म लिया।
अलग अलग प्रकारसे, विचित्र रूपसे चित्रित उपलब्ध होती है। वर्तमानमें तो बुद्धिमान व्यक्ति योग्य वय में अपने बल से वहाँ रहते प्रतिवासुदेव अश्वग्रीव को हराकर तीन खण्डों का राज्य
अपनी बुद्धि-कल्पनानुसार अलग अलग ढंगसे चित्रित कराते है। अपने अधीन कर लिया। त्रिपृष्ठ'शौकीन और इन्द्रिय विषयों में लोलुप थे। एक दिन ऐसा हुआ
जैनसंघ में चतुर्विध संघ बीसस्थानक की आराधना करता है। इस कारणसे इस चित्र के कि रात्रि के संगीत का कार्यक्रम चल रहा था। त्रिपृष्ठ ने अपने शय्यापालक से कहा कि 'संगीत
नीचे के वर्तुल में चतुर्विध संघका प्रतिनिधित्व करते हुए एक-एक व्यक्ति का तथा मुख्य का मधुरनाद सुनते हुए जो मुझे नींद आ जाय, तो तू इन संगीतकारों का संगीत बन्द कराकर
साधक का चित्रण किया गया है। इन्हें छुट्टी दे देना।' शय्यापालक ने हाँ कहा। होनहार कि त्रिपृष्ठ को तुरंत नींद आ गयी, परन्तु वह शय्यापालक मधुर संगीत सुनने में ऐसा तल्लीन हो गया कि राजाज्ञा को भूल गया और आजसे लगभग तीस वर्ष पूर्व बम्बई में बीसस्थानक की बीस आकृतियाँ नूतन कल्पनानुसार संगीत चलता रहा। कुछ समय बीतने पर वासुदेव अचानक जाग गये। उसने संगीत चलता हुआ
बनवायी थी। बाद में जरीके पुंठिये (छोड) में वे आकृतियाँ चित्रित करवाई। इस प्रकारका देखा। उसे हुआ कि मेरी आज्ञा होने पर भी उसने संगीत बन्द नहीं किया ! मेरी ही आज्ञा का पुंठिया प्रथम बार बना। बाद में तो उसके आधार पर अनेक अनुकृतियाँ बनीं। मेरे ही सामने स्पष्ट अनादर ! उसके कान संगीत सुनने में ऐसे तल्लीन हो गये कि मेरी आज्ञा
चित्र-५: आकाश में विमानद्वारा देवों का २६ वाँ भव बताया गया है। विमान के बीच में बैठा के भंग का भय तक न हुआ। बहुत गुस्सा हुआ। उसे क्या दंड देना चाहिए, इसका निर्णय कर
हुआ देव यही भगवान का जीव है। इस देवभव का आयुष्य पूर्ण होने पर २७ वे भव में छत लिया और प्रातःकाल उसे बुलाकर अपने सामने ही उसके कान में गरम-गरम सीसा डलवाया।
पर सो रही देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में जन्म लेने के लिये नीचे उतर रहा है, उसे तेज के इससे शय्यापालक मृत्यु को प्राप्त हुआ। तीव्र विषय लोलुपता और उग्र कषायभाव के कारण
श्वेतबिन्दु द्वारा सूचित किया गया है। सम्यक्त्वगुण को छोड़कर बासुदेव मृत्यु को प्राप्त हुए. उन्नीसवे भव में सातवे नरक में पहुँच गये। वहाँ की भयंकर यातनाओं को भोगकर बीसवे भव में नयसार के जीव ने हिंसक और क्रूर माने जानेवाले सिंह रूप में (पशुरूप) जन्म ग्रहण किया। वहाँ से मरकर सिंह का जीव पक्कीसवें भव में नरक में उत्पन्न हुआ, वहाँ नरक का आयुष्य पूर्ण ५, नन्दनमुनि की क्षमापना के श्लोक कण्ठस्थ करने योग्य है। ये हृदयस्पर्शी-हृदय को
आन्दोलित करनेवाले भावों से युक्त है। इस क्षमापना का अधिकार त्रिषष्टि शलाका. के ४. विपृष्ठ ११ वे तीर्थकर श्रेयांसनाथ के समय में हुए है।
दशमपर्व में है।
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