________________
२०
१६८ducation International
७४ से ७६. कल्पसूत्रकी (इन्डो-ईरानी मिश्र आर्ट ) पद्धतिके चित्रोंकी श्री नेमिनाथ भगवानसे सम्बन्धित तीन पट्टियाँ इन तीनों पट्टियोंका चित्रकाम १४-१५ वीं शताब्दी से लेकर १८ वीं शताब्दी तक के समयमें जैन कल्पसूत्र प्रति की चित्रकला पद्धतिमें (इन्डो-ईरानी स्टाइल) जिस ढंगसे काम होता था उस पद्धतिके अनुसार करवाया है। ये पट्टियाँ जेसलमेरीके चित्रोंकी ही अनुकृति है। ७४ नंबर की पट्टी के चित्रमें नेमिनाथ भगवानका च्यवन, माताजीसे देखे गये १४ महास्वप्न तथा पिताजी समुद्रविजयजी को अपने निवास स्थानमें बैठे हुए दिखाये है।
७५ नंबरकी पट्टीमें शिवादेवी माताजी को तथा नेमिनाथ भगवानका जन्म प्रसंग बताया है। हरिणैगमेषी भगवान को लेकर अन्य देवोंके साथ मेरुपर्वत पर इन्द्र द्वारा भगवानका अभिषेक, विवाह की बारातका रथ, पशुओंका बाडा, विवाहकी चउरी तथा दीक्षा, ग्रहण यह सब पट्टीमें सिर्फ प्रतीक स्वरूप अर्थात् संक्षेप में दर्शाया है।
मेरु पर्वत पर जाते हैं। लोच, इन्द्र द्वारा केश
इस पट्टी में एक ध्यानाकर्षित बाबत यह है कि सामान्यतः माताजी के शयनगृहसे एक ही दिन की उम्र के भगवानको स्वयं इन्द्र महाराज मेरु पर्वत पर ले जाते हैं जब कि यहाँ चित्रमें यह अधिकार सिर्फ हरिणैगमेषीको दिया हुआ बताया गया है। शास्त्रों में ऐसे विकल्प सूचित है।
७६ नंबर की पट्टीमें देवलोक प्रस्तुत है।
७७-७८. श्वेतांबर - दिगम्बर मतानुसार २४ तीर्थंकरोंके २४ लांछनोंकी पट्टियाँ
७७ वीं पट्टी २४ तीर्थंकरोंका परिचय देनेवाली श्वेताम्बर मतानुसार २४ लांछन आकृतियाँ दी है। २४ तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ कल्पित आकारकी है। कौनसी मूर्ति किस तीर्थंकर की है इसका निर्णय करनेके लिए उनके चिह्न निश्चित हुए हैं। ये किस तरह निश्चित हुए इसके लिए शास्त्रों में लिखा है कि हरएक तीर्थंकर के जन्म पर उनकी दाहिनी जंघा पर जंघाकी चमडीसे वैसी आकृति निर्मित होती है। समय बीतने पर उस आकृतिकी वृद्धि होती है और मूर्ति निर्माण के प्रसंग पर तीर्थंकर विशेषकी आकृति या मूर्तिके नीचे लांछन उत्कीर्ण किया जाता है। इस पट्टीमें श्वेताम्बर शास्त्रोंद्वारा निश्चित किये गए २४ तीर्थंकरोंके २४ लांछन यहाँ चित्रित हैं।
जंघा पर ऐसी आकृतियाँ किस कर्मवश होती होगी यह तथा करीब आठ आकृतियोंको छोड़कर शेष तमाम लांछनाकृतियाँ तिर्यंच अर्थात् पशु-पक्षी आदिकी क्यों होती होंगी। व्यक्ति लोकोत्तर होने पर भी जंघामें ऐसी आकृतियाँ का निर्माण क्यों होता होगा? यह सब आश्चर्यपूर्ण बाबत है। ज्ञानीके सिवा इसका समाधान कौन दे ।
७८ नंबरकी पट्टी दिगम्बर मतानुसार २४ तीर्थंकरोंके २४ लांछनोंकी है। श्वेताम्बर मतसे इन लांछनोंमें अल्प भेद है। ७९. जैनं जयति शासनम् की अंतिम पट्टी
यह पट्टी 'जैनं जयति शासनम्' की है। ग्रन्थकी पूर्णाहुति -समाप्ति होनेपर जैन शासन जयवंतु हो ऐसी शुभ मंगल प्रार्थना की गई है।
८०. तीर्थंकर की प्रवचनकालिक विविध मुद्राएँ
टाइटल पृष्ठ नं. १ ऊपरकी पट्टी
दूसरी आवृत्ति पूर्णतया छप चुकी थी और अंतिम टाइटल शेष था तब मुझे विचार आया कि तीर्थकर किस मुद्रामें और कैसे आसन पर बैठकर देशना देते है इसके विविध विकल्प होनेसे विकल्प विषयक पट्टी तैयार करके दी जाए जिससे इस विषय के अभ्यासियों को संतोष हो, साथ ही टाइटल की शोभामें अभिवृद्धि हो। टाइटल के प्रथम पन्ने पर भी इस पट्टी को छापना आवश्यक था इसलिए इसे टाइटल पर छापी है।
इस पट्टीमें सात आकृतियाँ प्रस्तुत हैं। बीच वाली आकृतिकी दोनों बाजू पर जो आकृतियाँ स्थित हैं वे समान आकृतियाँ है अतः वास्तविक दृष्टिसे देखें तो इसमें चार ही मुदाएँ हैं। (१ से ४ आकृतियों को देखिये) हाथ और पैर किस तरह रखते हैं इसका कोई निश्चित निर्णय उपलब्ध न होनेसे यह पट्टी रखनी पड़ी है।
इस पट्टी में अन्य विशेषता यह है कि इसमें आसन के लिए चार प्रकार के कमल बताये हैं। तमाम आकृतियों पर छत्र दर्शित हैं, परंतु अंतमें दो आकृतियों पर समवसरणका ख्याल देने के लिए प्रतीक रूपमें अशोक वृक्ष बताया है। तीर्थंकर ज्ञान के महान् प्रकाश के प्रसारक होनेसे छत्रों के बीच लघु दीपक रखे गये हैं। ग्रन्थ के अंदर दी गई पट्टियों से यह पट्टी अलग है यह दिखाने के लिए तथा तीर्थंकर देवोंके हिंसा तथा परिग्रह त्यागने के मुख्य उपदेश को लक्ष्यमें लेकर अहिंसा और अपरिग्रह इन दो शब्दों को दोनों छोर पर लिखवाया है। इस लेखन की लकीर पर दीपक की ज्योत रखी गई है, और सारी बोर्डर की समतुला निभाने तथा सुंदरता बढ़ाने के लिए पुष्पों या प्रकाशकी झलक समान डिझाइन प्रस्तुत की गई है।
इस पट्टीको सूक्ष्म दृष्टिसे देखनेवाले ही सुचारू रूपमें समझ पाएँगे।
इस तरह तीसरी आवृत्तिमें प्रस्तुत ८० पट्टियों का परिचय समाप्त होता है।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org