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मुख्यतया यह आकृति सिद्धचक्र बृहत्पूजनमें जिस यन्त्रकी पूजा होती है उस यन्त्र के केन्द्र (मध्य में) में होती है।
'नाद' रहित अहं इस यन्त्र में कभी भी संभव नहीं है। नाद होना ही चाहिए।
यह बीज मुख्य रूपसे जपके
बदले आलेखन में अधिक प्रयुक्त हुआ है।
यह आकृति तीनों पद्धतियोंसे पड़ी जा सकती है, इसलिए ऊपर इसके तीनों प्रकार बताये गए हैं।
८. औं ह्रीँ अर्ह इस प्रतीक का परिचय नंबर सातके समान समझना चाहिए। आलेखन का दूसरा प्रकार दिखानेके लिए उसे लम्बगोल (लम्बगोलाकारमें) आकृतिमें चित्रित किया है और दूसरा अन्तर यह है कि इस अहं पर नाद की चिह्नाकृति नहीं बतलाई है। अन्य यन्त्रपटोंमें यह आकृति 'नाद' रहित भी चित्रित होती है।
१०. डई -
११. कमल -
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१२. ही -
१३. मालाधारी
देव -
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यह नादरहित (ऊपर तथा नीचे चित्रित) द्विरेफवाला विख्यात मन्त्रबीज है। यह बीज नीचे को एक रेफवाला भी है। और वह अधिक सुविख्यात तथा प्रचलित है। सिद्धम व्याकरणके पहले ही मंगलसूत्रमें यह बीज उच्चारित हुआ है। 'नाद' दिखानेके लिए त्रिकोण, गोल आदि आकृतियोंका उपयोग होता है। और 'नाद' ध्यान का एक अंग तथा सोपान है। जिसके लिए 'अनाहत नाद' ऐसा शब्द सुप्रसिद्ध है। यह योगसाधनाकी फलश्रुति का एक अंग है।
१९. झाँझ तथा मँजीरे
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-'अहं' इस बीजमें मन्त्र, शास्त्रोक्त स्वरों तथा व्यंजनों का समावेश है। क्योंकि वर्णमातृकामें पहले स्वर और बाद में व्यंजन सिखाये जाते है। स्वरोंमें पहला स्वर वर्ण 'अ' है और व्यंजनोंमें अन्तिम अक्षर 'ह' है। इस बीज में आदिमें 'अ' तथा अन्तमें 'ह' होनेसे 'अ' और 'ह' के बीच समस्त स्वर एवं व्यंजनोंको अन्तर्गत समाविष्ट कर लिया गया है। अर्थात् एक 'अहं' के जपसे समस्त स्वर व्यंजनोंकी जपसाधना हो जाती है। इसीलिए इस बीजका अत्यन्त महत्त्व है ऐसा मन्त्रविदोंका कथन है। अनेक ग्रन्थोंमें इस बीजकी विविध रूपोंमें बहुत-बहुत महिमा गाई है।
कुछ मन्त्रबीजों पर 'नाद' की आकृति बनाने का विधान होने पर भी 'नाद' विषयक ख्याल सैकड़ों वर्षोंसे विस्मृत हो जाने के कारण उसका आलेखन जैन-यन्त्रोंमें नहीं के बराबर है।
व्याकरण की सांकेतिक परिभाषामें 'अवग्रह' शब्दसे सूचित 3 जैसी आकृतिसे युक्त यह बीज है। अधः अर्थात् नीचेवाले रेफसे रहित अर्थात् केवल ऊपर के एक ही रेफ (र) वाला यह मन्त्र बीज है। कुछ यन्त्रोंके केन्द्र में ऐसा बीज होता है। हजारों जैन जप करने में बहुधा एक रेफवाले बीज का ही उपयोग करते है।
भारतीय संस्कृतिका, कविप्रिय और विख्यात प्रतीक । अजन्ताकी गुफाओंमें अंकित आकृति की एक अनुकरणात्मक कृति। भारत के सन्तो धर्माचार्योंने संसार में रहते हुए भी जलकमलवत् अनासक्तभावसे कैसे रहना चाहिए, यह समझाने के लिए इसका दृष्टान्तके रूपमें बहुत ही उपयोग किया है, क्योंकि कमल जलमें उत्पन्न होता है और उसमें रहता है, तथापि जलसे वह अलिप्त रहता है।
१४. विद्याधर देव - आबु आदि शिल्प स्थापत्यमें दिखाई देनेवाला आकाशचारी और पुष्पगुच्छधारी विद्याधर देव ।
१५. अश्य
नाद, बिन्दु और कलासे युक्त जैनलिपिमें आलिखित ह्रीँकार बीज। ऋषिमंडल-यंत्रके केन्द्र में यही बीज है। इस 'ह्रीं' बीज में २४ तीर्थंकरोंकी स्थापना की जाती है। (देखिये - ऋषिमंडल स्तोत्र - श्लोक २०) स्वयं मेरे द्वारा सम्पादित ऋषिमंडल यन्त्रमें नादसहित ही 'ह्रीं' चित्रित किया गया है। जब कि विगत ३०० वर्षोंके बीच मिलनेवाले ताम्रपत्र, वस्त्र, कागज आदि पर आलिखित यन्त्रोंमें नाद की आकृति कैसी बनाई जाए? इसकी गुरु-परम्परा विस्मृत हो जानेके कारण नादरहित ही 'ह्रीं' स्थापित दिखाई देता है।
स्वर्गका एक देव। ती थंकरों तथा अन्य देवोंका देवगण पुष्पहार द्वारा सत्कार करते है यह दिखानेके लिए चित्रित की जानेवाली एक जानी-पहचानी आकृति । समस्त जैन परिकरोंमें (परघरोंमें) मूर्तिके मुखकी दोनों ओर (प्रायः) यह आकृति होती ही है। उसके अतिरिक्त गुफाएँ, स्तूप और चित्रपट आदि यह आकृति मुख्यरूपसे होती है। हाँ, इसके आलेखन के मोडमें अन्तर हो सकता है।
जैन शास्त्र पाताल और आकाशमे भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक इन चार निकाय प्रकार की देव सृष्टिको मानते है।
१६. सिंह -
स्थापत्योंमें दिखाई देती एक विशिष्ट आकृति । विशेषरूपसे जैन मंदिरोंके शिखर पर शुकनासिका पर पत्थरसे उत्कीर्ण गर्जारव प्रसंगके भावको व्यक्त करती हुई ऐसी आकृति रखी जाती है। मध्यकालीन कला का नमूना है।
१७. सिंहगजमुख प्राचीन युगमें विश्वके विविध भागोंमें हाथीकी सूँडवाले सिंह और अश्वादि जानवरोंके शिल्प चित्र बनानेकी प्रथा थी इसलिए यहाँ भी ऐसे ही प्रकार
की आकृति मध्ययुग के कल्पसूत्र श्रेणीकी ग्रामीण पद्धतिसे चित्रित है। सांचीके स्तूपमें, मथुराके जैन स्तूप में कतिपय बौद्ध गुफाओंमें तथा दक्षिण भारतके कुछ हिन्दू मंदिरोंमें इस प्रकारकी आकृतियाँ उत्कीर्ण है। मध्य एशिया और पश्चिमी विश्वमें भी इस प्रकारका शिल्प बनानेकी प्रथा है। साथ ही प्रागैतिहासिक कालमें इस प्रकार के प्राणी विद्यमान भी थे ऐसा माना जाता है।
मध्ययुगीन कल्पसूत्रकी पद्धतिका विविध साजोंसे अलंकृत एक रम्य आलेखन। यह एक सुपरिचित विश्वविख्यात प्राणी है और किस यन्त्रकी कितनी शक्ति है, यह बतानेके लिए वैज्ञानिक इसके नामका ( होर्सपावर शब्द का उपयोग करते है।
१८. वृषभ - बैल जैन कल्पसूत्रकी मध्ययुगीन पद्धतिके श्रृंगारवाला रम्य आलेखन । यद्यपि आज तो इसका उपयोग घट गया है, किन्तु एक समय इसके आन्तरदेशीय
व्यवहारके लिए देशव्यापी उपयोग होता था।
कांस्य धातुसे बनाये हुए संगीत, भक्ति प्रार्थना, पूजा आदिके प्रसंग पर बजाये जानेवाले, भारतीय संस्कृतिका, देश के कोने-कोनेमें प्रसिद्ध तथा अनेक त्यौहारोंमें मंदिरोंमें प्रयुक्त होनेवाला वाद्य वाद्यके मूलभूत चार प्रकारोंमेंसे एक प्रकारका यह धनबाद्य है। मंजीरेका उपयोग भी झाँझ के समान ही होता है। परंतु झाँझकी अपेक्षा भजनमंडलियोंमें इसका उपयोग अधिक होता है। इसका नाद अतिमंजुल मधुर और सघन होता है।
४. अन्य कर्ता ओने छपाये हुए सिद्धचक्र के यन्त्रोंमें यह आकृति तो है किन्तु वह 'नाद' के चिह्नसे रहित है। जबकि मेरे द्वारा सम्पादित यंत्रमे 'नाद' सहित की है। 'नाद' होना ही चाहिए तभी शास्त्रोक्त बीज बनता है, और तभी वह यन्त्र शास्त्रोक्त पद्धति से शुद्ध माना जाता है।
५. ऋषिमण्डल यन्त्रका केन्द्रीय "ड्री" अगर नादहीन हो तो उसे संपूर्ण अशुद्ध समझे।
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