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२०.शहनाई सुंदर भावको व्यक्त करता हुआ यह चित्र है। अत्यन्त प्राचीनकालसे देव-दरबारों, राज-दरबारों तथा गरीबसे लेकर अमीरोंके पार्मिक, सांसारिक वादन- अथवा व्यावहारिक प्रसंगोंमे तथा शोभायात्राओंमें अधिकांश प्रयुक्त होनेवाला यह मंगल वाथ है। और वाधके प्रकारोंमें यह सूषिरवाध के रूपमें
प्रसिद्ध है। शहनाई प्रान्त, नगर, ग्राम आदिके भेदसे भिन्न-भिन्न रूपसे विविध नाप-आकृतियोंमे दिखाई देती है। आकार भेद या नाम भेदसे यह
अन्य देशोंमें भी प्रयुक्त होती है। २१. नगाडा मुख्य रूपसे मन्दिर आदिके प्रार्थनास्थलोमे तथा अन्य धार्मिक अवसरों पर प्रयोगमें आनेवाला यह अतिविख्यात पक्षाच नामसे परिचित नगाहा है। वादन -
इसीको संस्कृतमे कुन्दुभि कहते है। (विशेष परिचय प्रतीक संख्या २० के समान है।) २२. मृदंगवादक- जूडा बांधे हुए पुरुष का डोलक वादन, दसवीं शतीसे पंद्रहवी शतीके पुरुष शिल्पों-चित्रोंमें कतिपय राजाओं तथा प्रजाजनोंमें लंबे बाल रखनेकी
प्रथा होनेसे इसे जूडे के रूपमें बांधते थे।
विशिष्ट वेषभूषावाली कल्पसूत्र पद्धति की मृग जैसी, दीर्घनयनोंवाली, बारहवीं शतीकी अनुकरणात्मक कृति। २३. नर्तकी - शुकनासिका जैसी नुकीले नाकवाली, मृगनयनी नामको सार्थक करनेवाली दीर्घ और बाहर निकले हुए नेत्रोंवाली और कल्पसूत्रकी जैनाश्रित
चित्रकला के नामसे परिचित पद्धति द्वारा चित्रित एक नर्तकी। २४.वाद्यवादक
नारी- चर्मवाद्य (अथवा वितत) के वर्गमे परिगणित लम्बचतुरस्त्र वाध को (त्रिभंग जैसी वकतामे रहकर) बजाती हुई नारी (कल्पसूत्र पद्धति)। २५. त्रिशला भगवानको जन्म दे चुकनेके बाद माता त्रिशलाका यह चित्र है। पैर छोटे और नेत्र लम्बे बतानेके लिए, छायाका (शेडका) उपयोग नहीं करना और थोड़े में और वर्षमान - बहुत बतला देना, इस पद्धतिको ध्यानमें रखकर, रंग-रेखाओंके मेलका ध्यान रखते हुए चित्र बनाना, यह कल्पसूत्र के चित्रोंकी एक पद्धति है।
कलाकार इसे 'इण्डियन आर्ट' कहते है। २६. आरती - मयूर शिखाधारी, पंच दीपोवाली आरती। यह भारत-प्रसिद्ध मंदिर-पूजा का एक अनिवार्य साधन है। इतना होते हुए भी अन्य धार्मिक अथवा
व्यावहारिक कार्योंमें भी यह स्वागत-सत्कार अथवा बहुमान के लिए उपयोगमे आती है।
भारत आदि देशोंमें सायंकाल के समय घी में डुबोई हुई रूई की बत्तीके दीपकवाली इस आरतीको देव-देवियोंके आगे प्रदक्षिणा के आकारमे वर्तुलाकारमे नियमित रूपसे घुमानेकी (उतारनेकी) आवश्यक और अनिवार्य प्रथा है।
- विशाल धार्मिक प्रसंगोंमे १०८ दीपकोकी आरती उतारी जाती है। मुख्य रूपसे जैन-मंदिरोंमें यह प्रथा अधिक है। - सैकड़ों प्रकारों में उपलब्ध होनेवाली आरतियोमेसे यहाँ सुलभ, सर्वत्र प्रयुक्त एक सादा प्रकार चित्रित किया है।
- १८ वी शतीकी राजस्थानी आकृति के आधार पर यह आकृति अंकित की है। २७.दीपक - यह दीपक साँझकी आरती उतारनेके पश्चात् तत्काल उतारनेमें आता है। जिससे 'आरती दीप' ऐसा संयुक्त शब्द भी प्रचलित हो गया है। (दीया)
यह दीपक अकेला भी प्रातः देव-मंदिरोंमें, पूजन-पाठमे, तस्वीरोंके समक्ष तथा भारतके गृह-मंदिरोमें अधिकतर उतारनेके लिए प्रयुक्त होता है। इसमें घीमें भीगी हुई रुईकी बत्तीका दीप होता है।
भारतीय संस्कृतिमें आरती-दीप की भक्ति को मंगल और कल्याण-श्रेय करनेवाली कहा है। २८.देवी श्री २३ वे तीर्थकर भगवान श्री पार्श्वनाथजी की अधिष्ठायिका के रूपमें जैनधर्म प्रसिद्ध इस कालकी एक प्रभावक देवी। यह देवी भवनपति निकाय की है, फ्यावती- और धरणेन्द्र की पत्नी- देवी के रूप में पहचानी जाती है।
'पद्मावती में फनों की संख्या बहुधा सात बनाने की प्रथा है। किन्तु न्यूनाधिक भी देखने में आती है। भैरव पद्मावती कल्पके प्रणेताने रक्तपद्यावती को तीन फनोंवाली कहा है। पार्श्व देवगणिने भी तीन फनोंवाली बतलाया है। यहाँ तीन फनोवाली, कुक्कुटमुख सर्पासनवाली, पाश, अंकुश, कमल तथा बिजोसे युक्त आयुषवाले चार हाथोंसे युक्त दिखाई गई है। कल्पसूत्र की चित्रपद्धतिका यह आलेखन है।
पद्मावती के आयुध आदि में मतमतान्तर है। श्वेताम्बर और दिगम्बरके संप्रदायमें भी भेद है। यह विविध स्वरूपोंसे भी पहचानी जाती है। जैन, हिन्दू और बौद्ध तीनों ही अपनी-अपनी रीतिसे 'पद्मावती' नामक देवी को स्वीकृत किया है। पद्मावतीजी के स्वतन्त्र पीठ-स्थान भी बने है। इनमें बम्बई में वालकेश्वर रीज रोड पर आदिनाथ जैन मंदिर में स्थापित संगमरमर (आरस) की अभिनवमूर्ति शिल्पकला तथा आकृति की दृष्टिसे सर्वश्रेष्ठ कोटि की है। __ यक्ष-यक्षिणी व्यन्तर निकायके होते है जब यह भवनपति निकायकी क्यों? यक्षिणी पद्मावती हो तो यक्ष धरणेन्द्र होना चाहिए, उसके स्थान पर
'पार्श्वयक्ष' क्यों है? ये और ऐसे ही अन्य प्रश्न खोज के विषय है। २९. ऋषभदेव यह प्रसंग अरबों वर्ष पूर्व हुए इस युग के आद्य तीर्थकर श्री ऋषभदेव भगवानने, आत्मसाधनाके लिए किये गये, साधिक एक वर्षके उपवासोके और इक्षुरसका अन्तमे अपने पौत्र राजकुमार श्रेयांस द्वारा इक्षुरस द्वारा कराये गये पारणे का है।
दान - -तीर्थकर करपात्री होते है इसलिए भिक्षादान हायोंमें ग्रहण करते है। उनके कन्धे पर इन्द्र द्वारा स्थापित केवल एक देवदूष्य वस्त्र होता है। ३०. हंस- मथुरा स्तूपमे से शिल्पोत्कीर्ण हंस की अनुकृति। मिले हुए दूध और पानीको पृथक् कर सके ऐसी चोचवाला काव्योंमें प्रसिद्ध पक्षी। ३१. मृग संयो- यहाँ एक मुख और चार शरीर, इस तरह का (सामान्य कोटिका) एक संयोजना-चित्र अंकित है। जना- विविध प्रकारसे बुद्धि-वैभववाले संयोजन-शिल्प तथा संयोजन-चित्र बनाने की प्रथा बहुत पुरानी है। राजस्थान और गुजरातमे इस कला का
अच्छा विकास हुआ है। विविध पशुओंसे बने हुए ऐसे हाथी-घोडे के तथा नर-नारियोंसे युक्त ऐसे जानवरोंके उत्तम कोटि के नयनरम्य अनेक चित्र
बने है। इस प्रकार के प्रसंग चित्र काष्ठ, वस्त्र और कागज की भूमिका पर देखनेमे आते है। ३२. मृग युगल- निरामिष भोजन करनेवाला, सन्तोषी, सुरुप माना जाता, करुणापात्र और अकारण ही शिकारियों के द्वारा सदैव शिकार बनने वाला मृगयुगल का
यह एक सुंदर रेखाचित्र है। ३३. हंस- एक विशिष्ट जलबिहारी हसाकृति।
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