________________
३४. अम्बाई,
अम्बिका, अम्बा - (आग्रकृष्पाण्डिनी)
३५. लक्ष्मी
३६. सरस्वती
२२ वे तीर्थंकर श्री नेमिनाथ भगवानके शासनकी अधिष्ठात्री यक्षिणी देवी ।
चित्रमें इसे दो हाथोंवाली पुत्रदर्शन के लिए उन्मुख, दाहिने हाथमें बालक तथा बायें हाथमे आम्रलुम्बी, सिंह-वाहना, आभूषणोंसे अलंकृत और भद्रासन पर विराजमान दिखाई है।
अजैनोंमें अम्बाजी तथा माताजी के उपनामसे यह देवी सर्वत्र प्रसिद्ध है। गोत्रदेवीके रूपमें भी यह विख्यात है। यह देवी इतिहास प्रसिद्ध भी है। बारहवीं शतीसे पूर्व इसे जैनसंघ की प्रधान देवी के रूपमें स्थापित किया गया था। क्योंकि उस काल की पाषाण और धातुमूर्तियोंमें तीर्थंकर चाहे कोई भी हो, किन्तु परिकर में देवी के रूपमें बहुधा अम्बिका ही स्थापित की हुई मिलती है। इसका दूसरा नाम 'कूष्माण्डी' 'कूष्माण्डिनी' अथवा 'आम्रकूष्माण्डी' है।
अम्बिका - एक पुत्रवाली, द्विपुत्रवाली, चतुर्भुजा, सीधे अथवा तिरछे मुखवाली, बहुधा बायें हाथमें बालकवाली अथवा बायें भागमें स्थित बालकवाली इस प्रकार भिन्न भिन्न रूपये उत्कीर्ण मिलती है।
Jagqucation International
ऊपर बताई गई तीनों देवियोंके आयुध, वाहन, बालक की संख्या एक या दो है आदि बातोंमें अनेक विकल्प प्रवर्तमान है। यहाँ तीनों देवियोंको वर्तमान में लोकप्रिय, कल्पसूत्र पद्धति से उसीकी अनुकृतिके रूपमें चित्रित किया गया है।
सर्वजन वल्लभा, पद्मासनस्था, कमलासना, चतुर्भुजा देवी लक्ष्मी। यह धनकी अधिष्ठात्री है। ऊपर के दोनों हाथोंमें हाथी सहित कमल तथा नीचे के हाथोंमें माला और कुम्भ है। इस देवी को सभी मानते है। ये लक्ष्मीजी द्विभुजावाली, आयुधोंमें विभिन्न विकल्पोंसे युक्त तथा विविध प्रकारसे आलिखित भी मिलती है।
विद्या कलाकी अधिष्ठात्री, सर्वदर्शन-सम्माननीय, गृहस्थ, साधु अथवा सर्वजन सभी की प्रिय, भारत प्रसिद्ध, चार भुजाओंवाली, कमलासनमें विराजमान तथा वीणाधारिणी देवी ।
बारहवीं तेरहवीं शतीकी सुन्दर अंगभंगिमावाली कृतिकी यह अनुकृति है।
सरस्वती का दूसरा नाम श्रुतदेवी श्रुतदेवता भी है। शारदा आदि अन्य अनेकानेक नामसे कवियोंने इसका परिचय दिया है। विद्या, बुद्धि, ज्ञान और स्मृति की प्राप्ति के लिए भारतीय प्रजाजन इस देवीकी विविध प्रकार से बहुत उपासना करते है।
सरस्वतीकी दो भुजाओंवाली आकृति भी होती है। खड़ी अथवा बैठी हुई आकृतियाँ भी मिलती है। यह हंस और मयूर दोनों वाहनोंवाली है। आयुधोंमें कुछ मतान्तर प्रचलित है। तीनों संस्कृतियोंमें सामान्य रूपसे किसी न किसी रूपमें इसे मानते है और पूजा करते हैं।
३७. जिनमूर्ति' - वर्तमान अवसर्पिणी, वर्तमान युग अथवा वर्तमान चौबीसीके २४ तीर्थंकरों देवोंमें प्रथम श्री आदीश्वरजी २२ वे श्री नेमिनाथजी और २४ वे
श्री महावीर स्वामीजी, ये तीनों तीर्थंकर पद्मासनमें बैठे-बैठे ही निर्वाण को प्राप्त हुए। और उसी आकारमें इनके आत्मप्रदेश मोक्षस्थान में विराजित हुए। इन तीनोंके अतिरिक्त शेष तीर्थकर परमात्मा खड़े-खड़े खड्गासन अथवा 'कायोत्सर्ग' नामक आसनमें रहकर निर्वाण प्राप्त हुए और उसी आकार में वे मोक्षमें सदाके लिए स्थित हो गये। यही कारण है कि जैन-मूर्तियाँ एक तो बैठी हुई पद्मासनवाली तथा दूसरी खड़ी कायोत्सर्गासनवाली इस प्रकार दो तरह के आसनोंवाली शिल्पोंमें बताई जाती है। यहाँ पद्मासनस्थ आकारमे वीतराग (राग-द्वेष रहित) भाव के आदर्श को व्यक्त करती हुई मुक्तात्मा तीर्थंकर की शान्त प्रशान्त आकृति दी गई है। प्राचीन कालमें श्याम पत्चरकी कुछ प्रतिमाएँ 'अर्धपद्मासन वाली भी बनी हुई है। उत्तर भारत में ऐसी प्रतिमाओंकी संख्या अधिक है।
३८. जिनमन्दिर उपर्युक्त मूर्तियाँ स्थापित करनेके लिए जैन शिल्प शास्त्रानुसार बनाया जानेवाला पवित्र और उत्तम माना जानेवाला मन्दिर का एक प्रतीक। छोटे-से चित्र में बनाना कठिन होनेके कारण यहाँ छोटी-सी देवकुलिका जैसा मन्दिर - सूचक प्रतीक बताया गया है।
३९. जैन
देवोंके पश्चात् गुरु का स्थान आता है। अतः इस प्रतीक में महात्यागी विशिष्ट हेतु को अभिव्यक्त करनेवाले, मुनिवेषधारी जैनमुनि को बताया है। साधु-मुनि- ये बोलने के समय जीवरक्षा के लिए दाहिने हाथ में मुँहपत्ती (एक प्रकार के वस्त्र का टुकडा) रखते है। और बायीं कुक्षि में भूमि पर रहनेवाले
जीवोंकी रक्षा के लिए ओघा ( ऊनके गुच्छे से बना हुआ साधन, जिसका दूसरा नाम 'रजोहरण' है) रखते है। ये दोनों चित्र में दिखाई देते है। बैठते समय ये भूमि को जीवजन्तुसे रहित बनाने के लिए सुकोमल रजोहरण - ( ओघा की ऊन) से जमीन साफ करके बाद में आसन बिछाकर बैठते है। ओघा जमीन पर अपने पार्श्वभाग में रखते है। तथा साधु महाराज जब बाहर जाते है तब बायें हाथमें साधुता का सूचक दण्ड (एक प्रकार का काष्ठ दण्ड) हाथमें रखते है। इस दण्ड का अग्रभाग सान्वर्थक आकृतिवाला होता है। जैन साधु निर्ग्रन्थ होनेसे सिले हुए वस्त्र नहीं पहनते । ये अधोवस्त्र, दूसरा छाती पर एक वस्त्र और तीसरा उस पर एक बड़ा वस्त्र इस प्रकार तीन वस्त्र पहनते हैं और उसके ऊपर साघुता की सूचक कम्बल - कमली डालते है। इन दिनों जैन साधुओंमें अधोवस्त्र के लिए चोलपट्ट (चुल्लपट्ट) नामक वस्त्र, छाती पर धारण करने के अंदर के पहले वस्त्रके लिए 'पांगणी' (प्रावरण) और उस पर धारण किये जानेवाले बड़े वस्त्र के लिए 'कपड़ा' 'पछेडी' शब्दसे पहचानने का व्यवहार है। उपाश्रयमें होते है तब अधोवस्त्र और उत्तरीय वस्त्र ये दो ही पहनते है। जब देवदर्शन, व्याख्यान आदि का विशिष्ट प्रसंग होता है या कहीं बाहर जाना होता है तब तीसरा वस्त्र कपड़ा पहनते हैं। वस्त्र का रंग सफेद होता है। किन्तु कतिपय कारणोंसे कुछ साधु समुदाय ऊपर का वस्त्र पीले रंगमें रंगा हुआ पहनते है। इन वस्त्रों को उपकरण कहते है।
जैनसंघ 'चतुर्विध संघ' (चार प्रकार का समुदाय) के नामसे पहचाना जाता है। इन चार प्रकारोंमें (१) साधु, (२) साध्वी, (३) श्रावक और (४) श्राविका का समावेश होता है। साधु और श्रावक में पुरुष समाविष्ट है तथा साध्वी एवं श्राविका में स्त्रीवर्ग समाविष्ट है। साधु-साध्वी त्यागी वर्ग और श्रावक-श्राविका संसारी वर्ग में आते है।
६. ३७ से ४३ तक के प्रतीक जैन मूर्तिपूजक संप्रदायमे 'सातक्षेत्र' शब्दसे प्रसिद्ध पुण्यक्षेत्र स्थान है।
७. यहाँ दिया हुआ प्रतीक श्वेताम्बर मूर्तिपूजक साधुका है। अमूर्तिपूजक कहे जानेवाले स्थानकवासी, तेरापंथी साधु-साध्वीजियाँ मुख पर मुखवस्त्रिका - 1-वस्त्र बांधते है। तथा उनके वस्त्र परिधानमें कुछ अन्तर है। इसी प्रकार आचारक्रियामें भी भेद है। दिगम्बर साधु पूर्णतः नग्नावस्थामे रहते हैं। वे उनके स्थान पर मयूरपिच्छका गुच्छ रखते है। दिगम्बर सम्प्रदायमें नग्नावस्था के सिद्धान्तके कारण साध्वी संस्था नहीं है।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org